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________________ - कारिका ७७] ईश्वर - परीक्षा यति । यदि तु प्रसिद्धेऽपि ज्ञे ज्ञत्वसमवायपरिकल्पनमज्ञव्यवच्छेदार्थमिष्यते तदा प्रसिद्धेऽप्याकाशेऽनाकाशव्यवच्छेदार्थ माकाशत्व समवायपरिकल्पनमिष्यताम्, तस्यैकत्वादाकाशत्वासम्भवात्स्वरूप निश्चयादेवाकाशव्यवहारप्रवृत्तौ ज्ञेऽपीश्वरे स्वरूपनिश्चयादेव ज्ञव्यवहारोऽस्तु किं तत्र ज्ञानसमवायपरिकल्पनया ? ज्ञानपरिणामपरिणतो हि ज्ञः प्रतिपादयितुं - शक्यो नार्थान्तरभूतज्ञानसमावायेन ततो ज्ञानसमवायवानेवेह सिद्ध्येत् न पुनर्ज्ञाता । न ह्यात्मार्थान्तरभूते ज्ञाने समुत्पन्ने ज्ञाता स्मरणे स्मर्त्ता भोगे च भोक्तेत्येतत्प्रातीतिक दर्शनम्, तदात्मना परिणतस्यैव तथाव्यपदेशप्रसिद्धेः । प्रतीतिबलाद्धि तत्त्वं व्यवस्थापयन्तो यद्यथा निर्बाधं प्रतियन्ति तत्तथैव व्यवहरन्तीति प्रेक्षा पूर्वकारिणः स्युर्नान्यथा । ततो उपलब्ध होता है और कोई ज्ञ अवश्य प्रसिद्ध है, इस कारण वह ज्ञमें ज्ञके व्यवहारको प्रवृत्त करता है ।' अगर ज्ञाताके प्रसिद्ध होनेपर भी उसमें . ज्ञानका समवाय अज्ञव्यवच्छेदके लिये कल्पित किया जाता है तो आकाशके प्रसिद्ध हो जानेपर भी अनाकाशका निराकरण करनेके लिये आकाशत्व• समवायकी कल्पना करिये । 4 वैशेषिक - आकाश एक है और इसलिये उसके आकाशत्व सम्भव - नहीं है | अतः स्वरूपनिश्चयसे ही आकाशमें आकाशव्यवहार प्रवृत्त हो जाता है, इसलिये आकाशमें अनाकाशका निराकरण करनेके लिये आकाशत्व के समवायकी कल्पना नहीं होतो ? जैन - तो ज्ञ- ईश्वर में भी स्वरूपनिश्चयसे ही ज्ञव्यवहार हो जाय, वहाँ ज्ञानसमवायको कल्पना करना भी अनावश्यक है । यथार्थ में ज्ञानपरिणामसे परिणतको ही ज्ञ कहा जा सकता है, भिन्नभूत ज्ञानके समवायसे परिणतको ज्ञ नहीं, उससे तो 'ज्ञानसमवायवाला' ही सिद्ध होगा, • ज्ञाता नहीं । वस्तुतः प्रत्यक्ष से यह प्रतीत नहीं होता कि आत्मा ज्ञानके सर्वथा भिन्न उत्पन्न होनेपर ज्ञाता, स्मरणके भिन्न पैदा होनेपर स्मर्ता और भोगके भिन्न होनेपर भोक्ता है, किन्तु उस (ज्ञान आदि ) रूपसे परिणत आत्माको हो ज्ञाता आदि कहा जाता है । निश्चय ही प्रतीतिके आधारपर तत्त्वकी व्यवस्था करनेवालोंको जो पदार्थ जैसा निर्बाध प्रतीत होता है वे उसका वैसा ही व्यवहार करते हैं और ऐसा करनेपर ही उन्हें 1. मु' नह्यर्थान्तर' | 2. मु 'भोक्तेति तत्प्राती' । 3. स 'प्रतीतियन्ति', मु 'प्रतीयन्ति' । 4 स ' व्यवहारयन्ति' । Jain Education International २०१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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