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________________ २०० आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [ कारिका ७७ बाधनात् । स्वयं सतः सत्त्वसमवाये च प्रमाणतः प्रसिद्धे स्वयं द्रव्यात्मना परिणतस्य द्रव्यत्वसमवायः स्वयमात्मरूपतया परिणतस्यात्मत्वसमवायः " स्वयं ज्ञानात्मना परिणतस्य महेश्वरस्य ज्ञानसमवाय इति युक्तमुत्पश्याम:, स्वयं नीलात्मनो नीलत्व' समवायवत् । न हि कश्चिदतथापरिणतस्तथात्त्वसमवायभागुपलभ्यतेऽतिप्रसङ्गात् । ततः प्रमाणबलानमहेश्वरस्य सत्त्वद्रव्यत्वात्सत्त्ववत् स्वयं ज्ञत्वप्रसिद्धेर्ज्ञानस्य समवायात्त'स्य ज्ञत्वपरिकल्पनं न कञ्चिदर्थं पुष्णाति । ज्ञव्यवहारं पुष्णातीति चेत्; न; ज्ञे प्रसिद्धे ज्ञव्यवहारस्यापि स्वतः प्रसिद्धेः । यस्य हि योऽर्थः प्रसिद्धः स तत्र तद्वयवहारं प्रवर्तयन्नुपलब्धो यथा प्रसिद्धाकाशात्मा आकाशे तद्वयवहारम्", प्रसिद्धो ज्ञश्च कश्चित् तस्मात् ज्ञे तद्वयवहारं प्रवर्त्तसमवाय सिद्ध होता है और कथंचित् सत्स्वभावसे परिणत नहीं है उसके सत्ताका समवाय माननेमें प्रमाणसे बाधा आती है । और जब स्वयं सत्के सत्ताका समवाय प्रमाणसे सिद्ध हो गया तो स्वयं द्रव्यरूपसे परिणतके द्रव्यत्वका समवाय, स्वयं आत्मारूपसे परिणतके आत्मत्वका समवाय और स्वयं ज्ञानरूपसे परिणत महेश्वरके ज्ञानका समवाय मानना भी युक्त है, जैसे नीलरूप से परिणतके नीलत्वका समवाय । वास्तवमें जो उसप्रकारसे परिणत नहीं है वह सत्तासमवायसे युक्त उपलब्ध नहीं होता, अन्यथा जिस किसी के साथ भी सत्ताके समवायका प्रसङ्ग आवेगा । अतः प्रमाणके बलसे महेश्वर के सत्त्व, द्रव्यत्व और आत्मत्वकी तरह स्वयं ज्ञातापन प्रसिद्ध हो जाता है और इसलिये ज्ञानके समवायसे उसे ज्ञाता मानना कोई प्रयोजन पुष्ट नहीं होता । वैशेषिक – ज्ञव्यवहार पुष्ट होता है । तात्पर्य यह कि यद्यपि महेश्वर स्वयं ज्ञाता है फिर भी ज्ञानका समवाय उसमें इसलिये कल्पित किया जाता है कि उससे महेश्वर में ज्ञाताका व्यवहार पुष्टिको प्राप्त होता है ? जैन - नहीं, जब महेश्वर ज्ञ ( ज्ञाता ) सिद्ध हो जाता है तो उसमें ज्ञव्यवहार भी अपने आप सिद्ध हो जाता है । 'जिसका जो अर्थ प्रसिद्ध होता है वह वहाँ उसके व्यवहारको प्रवृत्त करता हुआ उपलब्ध होता है, जैसे प्रसिद्ध आकाशरूप अर्थ आकाशमें आकाशव्यवहारको प्रवृत्त करता हुआ 1. मु स 'वायेऽस्य च प्रमाणप्रसिद्ध' । 2. 'स्वयमात्मेत्यादि' व पाठः । 3. मु 'नीलसमवाय' । 4. व 'स्वयं ज्ञत्वप्रसिद्धेर्ज्ञानस्य समवायात्' इति त्रुटितः । 5. मु 'हारप्रसिद्धो' ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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