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________________ कारिका ७३] ईश्वर-परीक्षा १८३ त्रेतरत्सत्स्यात् अत्यन्तसद्वेति सर्वशून्यतापत्तिर्दुःशक्या परिहत्तुम् । तां परिजिहीर्षता सत्त्वस्य भेदोऽभ्युपगन्तव्य इति नैका सत्ता सर्वथा सिद्ध्येत्, असत्तावत्, तदनन्तपर्यायतोपपत्तेः।। $ १६९. स्यान्मतिरेषाते.--कस्यचित्कार्यस्य प्रध्वंसेऽपि न सत्तायाः प्रध्वंसः, तस्या नित्यत्वात् । पदार्थान्तरेषु सत्प्रत्ययहेतुत्वात्प्राक्कालादिविशेषणभेदेऽप्यभिन्नत्वात् सर्वथा शून्यतां परिहरतोऽपि सत्ताऽनन्तपर्यायताsनुपपत्तिरिति, साऽपि न साधोयसी, कस्यचित्कार्यस्योत्पादेऽपि प्रागभावस्याभावानुपपत्तिप्रसङ्गात, तस्य नित्यत्वात, पदार्थान्तराणामुत्पत्तेः पूर्व प्रागभावस्य स्वप्रत्ययहेतोः सद्भावसिद्धः। समुत्पन्नककार्यविशेषणतया विनाशव्यवहारेऽपि प्रागभावस्याविनाशिनो नानाऽनुत्पन्न कार्यापेक्षया विशेपाते हैं। मान लीजिये कि एक जगह किसीका नाश हुआ तो वहाँ सत्ताके न रहनेसे सब जगह सत्ताके अभावका प्रसङ्ग आवेगा और उस दशा में न कोई किसीसे प्राक् सत् होगा, न पश्चात् सत् होगा और न इतरेतर सत् होगा तथा न अत्यन्त सत् होगा और इस तरह सर्वशून्यताकी प्राप्ति होती है, जिसका परिहार अत्यन्त कठिन हो जायगा। अतः यदि आप सर्वशून्यताका परिहार करना चाहते हैं तो सत्ताको अनेक मानना चाहिये । अतएव सत्ता सर्वथा एक सिद्ध नहीं होती है, जैसे असत्ता, क्योंकि उसके अनन्त भेद ( पर्यायें ) प्रमाणसे प्रतिपन्न होते हैं। $ १९९. वैशेषिक-हमारा अभिप्राय यह है कि किसो कार्यके नाश हो जानेपर भी सत्ताका नाश नहीं होता, क्योंकि वह नित्य है। जो नित्य होता है वह कदापि नाश नहीं होता। अतः दूसरे पदार्थों में सत्ताका ज्ञान होनेसे प्राककालिको, पश्चात्कालिकी इत्यादि विशेषणभेद होनेपर भी सत्ता एक है-भेदवाली नहीं है और इसलिये सर्वशन्यताका परिहार हो जाता है और सत्तामे उपयुक्त भेदोंका प्रसङ्ग भी नहीं आता। तात्पर्य यह कि सत्ताके विशेषणभूत घटपटादि पदार्थों के नाश हो जानेपर भी सत्ताका न तो नाश होता है और न उसमें अनेकता ही आती है। उक्त विशेषणोंमें ही विनाश, उत्पाद और अनेकतादि होते हैं। अतः सत्ता सर्वथा एक हैअनेक नहीं ? जैन-आपका यह अभिप्राय भी साधु नहीं है, क्योंकि किसी कार्यके उत्पन्न हो जानेपर भी प्रागभावका अभाव नहीं हो सकता, कारण, वह नित्य है, और नित्य इसलिये है कि अन्य दूसरे पदार्थों की उत्पत्तिके पहले उनके प्रागभावका ज्ञान करानेवाले प्रागभाव विद्यमान रहते हैं । अतः उत्पन्न एक कार्यरूपविशेषणकी अपेक्षासे प्रागभावमें विनाशका व्यवहार होनेपर भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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