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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ७७ तरत्र सत्त्वमितरेतरसत्त्वं कालत्रयेऽप्यनाद्यनन्तस्य सत्त्वमत्यन्तसत्त्वमिति सत्त्वभेदः कि नानुमन्यते, सत्प्रत्ययस्यापि प्राक्कालादितया. ऽविशेषसिद्धर्बाधकाभावात् । यथा चासत्त्वस्य सर्वथैकत्वे क्वचित्कार्यस्योत्पत्तौ प्रागभावविनाशे सर्वत्राभावविनाशप्रसङ्गात् न किञ्चिप्रागसदिति सर्वकार्यमनादि स्यात्, न किञ्चित्पश्चादसदिति तदनन्तं स्यात्, न क्वचित्किञ्चिदसदिति सर्वं सर्वात्मकं स्यात, न क्वचित्किञ्चि दत्यन्तमसदिति सर्वं सर्वत्र सर्वदा प्रसज्येतेति बाधकं तथा सत्त्वैकत्वेऽपि समानमुपलभामहे। कस्यचित्प्रध्वंसे सत्वाभावे सर्वत्र सत्त्वाभावप्रसङ्गान्न किञ्चित्कुतश्चित्प्राक् सत् पश्चात्सद्वा स्यात् । नाऽपीतर
सत्ता, एक जातीय दो पदार्थों में किसी रूपसे एककी दूसरे में सत्ता इतरेतर सत्ता, और तीनों कालोंमें भी वर्तमान अनादि अनन्त सत्ता अत्यन्त सत्ता, इस प्रकार सत्ताके भी भेद क्यों नहीं माने जा सकते हैं ? असत्ताके प्रत्ययविशेषोंकी तरह सत्ताके भी प्राक्कालिक सत्ता, पश्चात्कालिक सत्ता आदिरूपसे प्रत्ययविशेष होते हैं और उनमें कोई बाधा नहीं है। और जिस प्रकार असत्ताको सर्वथा एक होनेमें यह बाधा कही जा सकती है कि कहीं कार्यके उत्पन्न होनेपर प्रागभावके विनाश हो जानेसे सब जगह अभावके विनाशका प्रसङ्ग आयेगा और उस हालतमें न कोई प्राक् असत् (प्रागभावयुक्त ) रहेगा और इसलिये सब कार्य अनादि हो जायेंगे तथा न कोई पश्चात् असत् (प्रध्वंसाभावयुक्त) रहेगा और इसलिये सब कार्य अनन्त-अन्तरहित ( नाशहोन ) हो जायेंगे, एवं न कोई किसीमें असत् रहेगा और इसलिए सब स्वरूप हो जायेंगे, और न किसोमें कोई अत्यन्त असत् ( अत्यन्ताभावयुक्त ) बनेगा और इसलिये सब, सब जगह और सब कालमें प्रसक्त होंगे। इस प्रकार असत्ताको सर्वथा एक माननेपर यह बड़ी भारी बाधा आती है उसी प्रकार सत्ताको भी एक माननेमें भी वह उपस्थित की जा सकती है और इस तरह दोनों ही जगह हम समानता
1. मु ‘णतरेतरत्र'। 2. मु 'तया विशेष'। 3. 'कार्योत्पत्तौ'। 4. समुप प्रतिषु 'किञ्चित्' पाठो नास्ति । 5. मु स 'बाधकमपि तथा सत्त्वैकत्वे', द 'बाधकमपि सत्त्वैकत्वे' । मूले
संशोधितः पाठो निक्षिप्तः । 6. मु स 'स्यात्' नास्ति।
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