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________________ कारिका ५९] ईश्वर-परीक्षा १६३ स्यैवाभ्युपगमनीयत्वात् । संयोगिनोरपि विशेषणविशेष्यभावानतिक्रमात् । गुणद्रव्ययोः, क्रियाद्रव्ययोः, द्रव्यत्वद्रव्ययोः, गुणत्वगुणयोः कर्मत्वकर्मणोः गुणत्वद्रव्ययोः कर्मत्वद्रव्ययोः विशेषद्रव्ययोश्च द्रव्ययोरिव विशेषणविशेष्यत्वस्य साक्षात्परम्परया वा प्रतीयमानस्य बाधकाभावात् । यथैव हि गुणिद्रव्यं क्रियावद्रव्यं द्रव्यत्ववद्रव्यं विशेषवद्रव्यं गुणत्ववान् गुणः कर्मत्ववत्कर्म इत्यत्र साक्षाद् विशेषणविशेष्यभावः प्रतिभासते दण्डिकुण्डलियत्, तथा परम्परया गुणत्ववद्व्यमित्यत्र गुणस्य द्रव्यविशेषणत्वात् गुणत्वस्य च गुणविशेषणत्वाद्विशेषणविशेष्यभावोऽपि । तथा कर्मत्ववद्रव्यमित्यत्रापि कर्मणो द्रव्यविशेषणत्वात् कर्मत्वस्य च कर्मविशेषणत्वात् विशेषणविशेष्यभाव एव निरङ्कुशोऽस्तु। ६ १५०. ननु च दण्डपुरुषादीनामवयवावयव्यादीनां च संयोगः हैं उनमें भी विशेषणविशेष्यभावको ही स्वीकार करना सर्वथा उचित है। इसी प्रकार जो संयोगी हैं उनमें भी विशेषणविशेष्यभावको हो स्वीकार करना चाहिए। गुण और द्रव्यमें, क्रिया और द्रव्यमें, द्रव्यत्व और द्रव्यमें, गुणत्व और गुणमें, कर्मत्व और कर्ममें, गुणत्व और द्रव्यमें, कर्मत्व और द्रव्यमें तथा विशेष और द्रव्यमें दो द्रव्योंकी तरह साक्षात् अथवा परम्परासे विशेषणविशेष्यभाव प्रतीत होता है और उस प्रतीतिमें कोई बाधा नहीं है। वास्तवमें जिस प्रकार गुणवान् द्रव्य, क्रियावान् द्रव्य, द्रव्यत्ववान् द्रव्य, विशेषवान् द्रव्य, गुणत्ववान् गुण, कर्मत्ववान् कर्म इन स्थलोंपर दण्डी ( दण्डवान् ) और कुण्डली ( कुण्डलवान् ) की तरह साक्षात् विशेषणविशेष्यभाव प्रतोत होता है उसी प्रकार 'गुणत्ववान् द्रव्य' यहाँपर गुण द्रव्यका विशेषण है और गुणत्व गणका विशेषण है और इस तरह परम्परासे विशेषणविशेष्यभाव भी सुप्रतीत होता है। तथा 'कर्मत्ववान् द्रव्य' यहाँपर भी कर्म द्रव्यका विशेषण है और कर्मत्व कर्मका विशेषण है, इस तरह परम्परा विशेषणविशेष्यभाव ही रहता है और उसमें कोई बाधा नहीं है। अतः एक विशेषणविशेष्यभावसम्बन्धको ही मानना चाहिये, समवायादिको नहीं। १५०. वैशेषिक–दण्ड और पुरुष आदिमें तथा अवयव और अवयवी 1. द 'दण्डी कुण्डलीव'। 2. व 'विशेषणविशेष्यभावत्ववत् कार्यकारणभावः कार्यकारणभावत्वव निश्चीयते' इत्यधिकः पाठः । 3. मु स 'कर्मत्वस्य कर्मविशेषणत्वात् कर्मणो द्रव्यविशेषणत्वात्' पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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