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________________ १६२ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [ कारिका ५७, ५८, ५९ तस्यानन्त्यात्प्रपतॄणामाकाङ्क्षाक्षयतोऽपि वा। न दोष इति चेदेवं समवायादिनाऽपि किम् ॥५७॥ गुणादिद्रव्ययोभिन्नद्रव्ययोश्च परस्परम् । विशेषणविशेष्यत्वसम्बन्धोऽस्तु निरङ्कुशः ॥५८॥ संयोगः समवायो वा तद्विशेषोऽस्त्वनेकधा । स्वातन्त्र्ये समवायस्य सर्वथैक्ये च दोषतः ॥५९॥ $ १४९. तस्य विशेषणविशेष्यभावस्यानन्त्यात्समवायवदेकत्वानभ्यु'पगमाम्नानवस्था दोषो यदि परैः कथ्यते प्रपतणामाकाक्षाक्षयतोऽपि वा यत्र यस्य प्रतिपत्तुर्व्यवहारपरिसमाप्तेराकाङ्क्षाक्षयः स्यात् तत्रापरविशेषणविशेष्यभावानन्वेषणादनवस्थानुपपत्तेः, तदा समवायादिनाऽपि परिकल्पितेन न किञ्चित्फलमुपलभामहे, समवायिनोरपि विशेषणविशेष्यभाव वैशेषिक-विशेषण-विशेष्यभावको हमने अनन्त स्वीकार किया है, इसलिये अनवस्था दोष नहीं आता । दूसरे, प्रतिपत्ता लोगोंकी आकांक्षाका नाश भी सम्भव है, इसलिये भी अनवस्था दोष नहीं आ सकता। जैन-परन्तु उनका यह कहना युक्तिसङ्गत नहीं है, क्योंकि इस तरह तो समवाय आदि सम्बन्धोंको मानना भी व्यर्थ ठहरेगा। कारण, गुणादिक और द्रव्यमें तथा द्रव्य और द्रव्यमें विशेषणविशेष्यभावरूप सम्बन्ध ही मानना उचित एवं युक्त है। संयोग तथा समवाय आदि सम्बन्धोंको उसीके अनेक भेद स्वीकार करना चाहिये । और यदि समवायको स्वतन्त्र और सर्वथा एक माना जाय तो उसमें अनेक दोष आते हैं।' १४९, वैशेषिक-बात यह है कि विशेषणविशेष्यभाव अनन्त हैं, वे समवायकी तरह एक नहीं हैं । अतः अनवस्था दोष नहीं है । अथवा, प्रतिपत्ताओंकी आकांक्षा नाश हो जानेसे अनवस्था दोष नहीं आता। जहाँ जिस प्रतिपत्ताका व्यवहार समाप्त हो जाता है वहाँ उसकी आगे आकांक्षा (जिज्ञासा) नहीं रहती-वह नष्ट हो जाती है, क्योंकि वहाँ अन्य विशेषणविशेष्यभावकी आवश्यकता नहीं होती और इसलिये अनवस्था नहीं आ सकती है ? जैन-आपका यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि इस तरह तो माने गये समवाय आदिसे भी कोई अर्थ नहीं निकलता। कारण, जो समवायी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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