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________________ १५६ आप्तपरोक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ४९ ‘णवोऽपि सम्भाव्यन्ते इति सकलद्रव्यपदार्थहानेस्तदाश्रयगुण-कर्म-सामान्यविशेषपदार्थहानिरपीति सकलपदार्थव्याधातात् दुरुत्तरो वैशेषिकमतस्य व्याघातः स्यात् । तं परिजिहोर्षता युतसिद्धिः कुतश्चिद् व्यवस्थापनीया। तत्र [ अन्यप्रकारेण युतसिद्धिव्यवस्थापनेऽपि दोषमाह ] युतप्रत्ययहेतुत्वाद् युतसिद्धिरितीरणे । विभुद्र व्यगुणादीनां युतसिद्धिः समागता ॥४९॥ १४३. यथैव हि कुण्डवदरादिषु युतप्रत्यय उत्पद्यते 'कुण्डादिभ्यो वद. रादयो युताः' इति, तथा विभुद्रव्यविशेषेषु प्रकृतेषु गुणगुणिषु कियाक्रियावत्सु सामान्यतद्वत्सु विशेषतद्वत्सु चावयवावयविषु च युतप्रत्ययो भवत्येव, इति युतसिद्धिः समागता, सर्वत्रायतप्रत्ययस्याभावात् । देशभेदाभावान हैं, नहीं बन सकेंगे। इस प्रकार समस्त द्रव्यपदार्थकी हानि हो जाती है और उसकी हानि होनेपर उसके आश्रित रहनेवाले गुण, कर्म, सामान्य और विशेष इन पदार्थोंकी हानि निश्चित है। इस तरह सर्व पदार्थोंका अभाव प्राप्त होनेसे वैशेषिकमतका दनिवार नाश प्रसक्त होता है। तात्पर्य यह हुआ कि युतसिद्धि और अयुतसिद्धिके उपयुक्त लक्षण माननेपर वे लक्षण निर्दोष सिद्ध न होनेसे न युतिसिद्धिके निमित्तिसे व्यवस्थापित संयोग बनता है और न अयुतसिद्धिके निमित्तिसे व्यवस्थापित समवाय बनता है और जब ये दोनों सम्बन्ध नहीं बनेंगे तो संसर्गको हानिसे सकल पदार्थोकी हानिका प्रसङ्ग आवेगा, जिसका निवारण कर सकना असम्भव है । अतः इस दोषको यदि वैशेषिक दूर करना चाहते है तो उन्हें युतसिद्धिकी किसी तरह व्यवस्था करनी चाहिये । _ 'पृथक् प्रत्ययमें जो कारण है वह यतसिद्धि है, यह युतसिद्धिका लक्षण कहनेपर विभुद्रव्यों और गुणादिकोंमें युतसिद्धि प्राप्त होती है।' १४३. जिस प्रकार कुण्ड, वेर आदिकोंमें 'कूण्डादिकसे वेर आदिक पथक हैं' इस प्रकार पृथक प्रत्यय उत्पन्न होता है उसी प्रकार प्रकृत विभद्रव्यविशेषोंमें, गण-गणियोंमें, क्रिया-क्रियावानोंमें, सामान्य-सामान्यवानोंमें, विशेष-विशेषवानोंमें और अवयव-अवयवियोंमें पृथक् प्रत्यय होता है और इसलिये इनमें भी युतसिद्धि प्राप्त होती है तथा इस तरह कहीं भी अयुतप्रत्यय-अपृथक् प्रत्यय नहीं बन सकेगा। 1. मु 'भावात्तत्र न' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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