SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ · कारिका ४८ ] ईश्वर - परीक्षा [कर्मणोऽपि ] युतसिद्धिप्रसङ्गात् । संयोगस्यैव हेतुर्यु तसिद्धिरित्यवधारणेSपि विभागहेतुर्युतसिद्धिः कथमिव व्यवस्थाप्यते ? न च युतसिद्धानां संयोग एव, विभागस्यापि भावात् । संयोगो विभागहेतुरित्यपि वार्त्तम्, तस्य तद्विरोधिगुणत्वात्तद्विनाशहेतुत्वात् । संयुक्तविषयत्वादिभागस्य संयोगो हेतुरिति चेत्, न तहि विभक्तविषयत्वात्संयोगस्य विभागो हेतुरस्तु । कयोश्चिद्विभक्तयोरप्युभयकर्मणोऽन्यतरकर्मणोऽवयवसंयोगस्य चापाये संयोगापायान विभागः संयोगहेतुः; इति चेत्; तहि संयुक्त्त योरप्युभयकर्मणोऽन्यतरकर्मणोऽवयवविभागस्य चापाये विभागस्याभावात्संयोगोऽपि विभागस्य हेतुर्माभूत् । कथं च शश्वदविभक्तानां विभुद्रव्यविशेषाणामजः संयोगः सिध्यन् विभागहेतुको व्यवस्थाप्यते ? तत्र युतसिद्धिविभागहेतुरft कथमवस्थाप्यते ? इति चेत्, सर्वस्य हेतोः कार्योत्पादनानियमात् इति ब्रूमः । समर्थो हि हेतुः स्वकार्यमुत्पादयति नासमर्थ: सहकारिकारणानपेक्षः, सिद्धिका उक्त लक्षण माननेपर कर्ममें अतिव्याप्ति होती है । एक बात और है, वह यह कि यदि 'संयोगका ही जो कारण हो वह युतसिद्धि है' ऐसा कहा जाय तो विभाग हेतु ( विभागजनक ) युतसिद्धि कैसे व्यवस्थित होगी ? अर्थात् उसको व्यवस्था कैसे करेंगे ? क्योंकि यह तो कहा नहीं जा सकता कि युतसिद्धों के संयोग हो होता है-विभाग नहीं, कारण उनके विभाग भी होता है । 'संयोग विभागका कारण है' यह भो कथनमात्र है, क्योंकि संयोग विभागका विरोधी गुण होनेसे उसके विनाशमें कारण होता है— उत्पत्ति में नहीं । १५३ वैशेषिक - विभाग संयुक्तोंको विषय करता है अर्थात् जिनमें संयोग होता है उन्हीं में विभाग होता है और इसीलिये संयोग विभागका कारण है ? जैन - नहीं, क्योंकि संयोग विभक्तोंको विषय करता है अर्थात् जिनमें विभाग होता है उन्हीं में संयोग होता है और इसलिये विभाग संयोगका कारण हो । वैशेषिक - हमारा मतलब यह है कि किन्हीं दो विभक्तों में भी उभयकर्म और अन्यतरकर्म तथा अवयवसंयोग नहीं रहता है और उनके अभाव में संयोग नहीं बन सकता, अतः विभाग संयोगका कारण नहीं है ? जैन - इस प्रकार तो किन्हीं दो संयोगविशिष्टों ( संयुक्तों) में भी उभयकर्म और अन्यतरकर्म तथा अवयवविभाग नहीं रहते हैं और उनके न रहनेपर विभाग नहीं बन सकता है, अतः संयोग भी विभागका कारण 1. मु 'संयोगो विभागस्यापि', स 'संयोगो स्यापि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy