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कारिका ३९] ईश्वर-परीक्षा
१३१ गत्वा सुदूरमप्येवं स्वसंविदितवेदने ।
इष्यमाणे महेशस्य प्रथमं तादृगस्तु वः ॥३९॥ ६:२५. महेश्वरस्य हि विज्ञानं यदि स्वं न वेदयते, स्वात्मनि क्रियाविरोधात, तदा समस्तकारकशक्तिनिकरमपि कथं संवेदयेत् ? तथा हि-नेश्वरज्ञानं सकलकारक शक्तिनिकरसंवेदकम्, स्वासंवेदकत्वात् । यद्यत्स्वासंवेदकं तत्तन्न सकलकारकशक्तिनिकरसंवेदकम, यथा चक्षुः, तथा चेश्वरज्ञानम्, तस्मान्न तथा, इति कुतः समस्तकारकाधिष्ठायकम् ? यतस्तदाश्रयस्थेश्वरस्य निखिलकार्योत्पत्ती निमित्तकारणत्वं सिद्ध्येत्, असर्वज्ञताया एव तस्यैवं प्रसिद्धः । अथवा, यदीश्वरस्य ज्ञानं स्वयमीश्वरेण न संवेद्यते इत्यस्वसंविदितमिष्यते, तदा तस्य सर्वज्ञता न स्यात, स्वज्ञानप्रवेदनाभावात् । ही होगा, इस प्रकार अन्य, अन्य ज्ञानोंकी कल्पना होनेसे बड़ी भारी अनवस्था आती है।' _ 'यदि बहुत दूर जाकर किसी अन्य ज्ञानको स्वसंवेदी कहा जाय तो उससे अच्छा यही है कि पहले ज्ञानको ही आप स्वसंवेदी स्वीकार करें।'
१२५. यदि वस्तुतः महेश्वरका ज्ञान अपने आपको नहीं जानता है, क्योंकि अपने आपमें क्रियाका विरोध है-क्रिया नहीं बन सकती है तो समस्त कारकोंकी शक्तिसमूहको भी वह कैसे जान सकेगा? हम प्रमाणित करेंगे कि 'ईश्वरज्ञान' समस्त कारकोंकी शक्तिसमूहका ज्ञायक नहीं है, क्योंकि वह अपनेको नहीं जानता है, जो जो अपनेको नहीं जानता वह वह समस्त कारकोंकी शक्तियोंके समूहका ज्ञायक नहीं होता, जैसे चक्षु । और अपनेको ईश्वर-ज्ञान नहीं जानता है, इस कारण वह समस्त कारकोंकी शक्तिसमहका ज्ञायक नहीं है।' ऐसी हालतमें वह समस्त कारकोंका अधिष्ठायक ( संचालक-प्रवर्तक ) कैसे हो सकता है ? जिससे उसका आश्रयभूत महेश्वर समग्र कार्योंकी उत्पत्तिमें निमित्तकारण सिद्ध हो। इस तरह महेश्वरज्ञानके असर्वज्ञता हो प्रमाणित होती है। अथवा, यदि ईश्वरका ज्ञान स्वयं ईश्वरके द्वारा ज्ञात नहीं होता, इस प्रकारसे उसे अस्वसंविदित कहा जाता है तो महेश्वरके सर्वज्ञता नहीं बन सकती है, क्योंकि वह अपने ज्ञानको नहीं जानता है, इस तरह अस्वसंवेदी पक्षमें असर्वज्ञतादोष प्रसक्त होता है।
1. द 'यज्ज्ञानं'। 2. द एतस्यैव प्रसिद्धेः' ।
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