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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [ कारिका ३७, ३८
कल्पनया ? दृष्टादृष्टकारकान्तराणामेव क्रमाक्रमजन्मनामन्वयव्यतिरेकानुविधानात् क्रमाक्रम जन्मानि तन्वादिकार्याणि भवन्तु तदुपभोक्तृजनस्यैव ज्ञानवतः तदधिष्ठायकस्य प्रमाणोपपन्नस्य व्यवस्थापनात् ।
[ ईश्वरज्ञानस्यास्वसंविदितत्वस्वसंविदितत्वाभ्यां दूषणप्रदर्शनम् ] $ १२४. साम्प्रतमभ्युपगम्यापि महेश्वरज्ञान मस्वसंविदितं स्वसंविदितं वेति कल्पनाद्वितयसम्भवे प्रथमकल्पनायां दूषणमाहअस्वसंविदितं ज्ञानमीश्वरस्य यदोष्यते । तदा सर्वज्ञता न स्यात्स्वज्ञानस्याप्रवेदनात् ॥३७॥ ज्ञानान्तरेण तद्वत्तौ तस्याप्यन्येन वेदनम् । वेदनेन भवेदेवमनवस्था महीयसी ||३८||
अतः ईश्वर की कल्पनासे क्या फायदा ? कारण, क्रमजन्मा और अक्रमजन्मा दृष्ट- अदृष्ट कारकों के ही अन्वय और व्यतिरेक पाया जानेसे क्रमजन्य और अक्रमजन्य शरीरादिक कार्यों को उन्होंका कार्य स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि उनके ज्ञानवान् उपभोक्ता जन ही प्रमाणसे उनके अधिष्ठाता उपपन्न एवं व्यवस्थित होते हैं । तात्पर्य यह कि यदि कारकोंके नियन्ताको कार्योत्पत्ति में उन कारकोंका ज्ञान होना लाजमी है तो कुम्हार के ज्ञानकी तरह संसारके सभी जीवोंको भी अपने शरीरादिक भोगोपभोग वस्तुओं के कारकोंका यथायोग्य प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे ज्ञान प्राप्त है तब उन्हींको उनका अधिष्ठाता और उत्पादक मानना चाहिये । उसके लिए एक महेश्वरकी कल्पना करना, उसे अधिष्ठाता मानना और सृष्टिकर्त्ता बतलाना सर्वथा अनावश्यक और व्यर्थ है ।
$ १२४. इस समय महेश्वरज्ञानको स्वीकार करके 'वह अस्वसंवेदी है अथवा स्वसंवेदी' इन दो विकल्पों के साथ प्रथम विकल्प में प्राप्त दूषणों को कहते हैं
'यदि महेश्वरज्ञान अस्वसंवेदी है-अपने आपको नहीं जानता है तो उसके सर्वज्ञता - सम्पूर्ण पदार्थोंको जाननापना नहीं बन सकता है, क्योंकि वह अपने ज्ञानको नहीं जानता - सर्व पदार्थों के अन्तर्गत उसका ( महेश्वरका ) ज्ञान भी है सो यदि वह अस्वसंवेदो माना जायगा तो अन्य पदार्थोंको जान लेनेपर भी अपने ज्ञानको न जाननेसे वह समस्त पदार्थोंका परिच्छेदक - सर्वज्ञ नहीं हो सकता ।'
'यदि अन्य ज्ञानसे उसका ज्ञान माना जाय तो उस अन्य ज्ञानका भी ज्ञान अन्य तृतीय ज्ञानसे होगा, क्योंकि वह अन्य दूसरा ज्ञान अस्वसंवेदी
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