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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ३६ पर्यायात्मनि वस्तुनि सति कार्यस्य प्रसवनादसति 'चाप्रसवनात्तदन्वयव्यतिरेकानुविधानं सकलजनसाक्षिक कार्यकारणभावं व्यवस्थापयेत् । सर्वथैकान्तकल्पनायां तदभावं विभावयतीति कृतमतिप्रसङ्गिन्या कथया महेश्वरज्ञानस्य नित्यस्याव्यापिनोऽपि सर्वत्र कार्यकरणसमर्थस्य सर्वेषु देशेषु सर्वस्मिन काले व्यतिरेकाप्रसिद्धः। अन्वयस्यापि नियतस्य निश्चेतुमशक्तेस्तन्वादिकार्य तद्धेतुकं कारणान्तरापेक्षयाऽपि न सिद्ध्यत्येवेति स्थितम् ।
[ व्यापिनित्येश्वरज्ञाने दूषणप्रदर्शनम् ] $ ११५. कस्यचिन्नित्यव्यापीश्वरज्ञानाभ्युपगमेऽपि दूषणमतिदिशनाह
एतेनैवेश्वरज्ञानं व्यापिनित्यमपाकृतम् । तस्येशवत्सदा कार्यक्रमहेतुत्वहानितः ॥३६॥ $ ११६. एतेन व्यतिरेकाभावान्वयसन्देहव्यवस्थापकवचनेन व्यापिहो जाता है । और जब प्रमाणविवक्षा होती है तब द्रव्य-पर्यायरूप वस्तुके होनेपर कार्यके होने और द्रव्यपर्याय रूप वस्तुके न होनेपर कार्यके न होनेसे अन्वय और व्यतिरेक दोनों, जो सभी के प्रत्यक्ष हैं, कार्यकारणभावकी व्यवस्था करते हैं तथा सर्वथा एकान्त वस्तुके स्वीकारमें कार्यकारणभावके अभावको सिद्ध करते हैं। इस विषय में इससे और ज्यादा चर्चा करना अनावश्यक है। अतः उपयुक्त विवेचनसे प्रकट है कि महेश्वरज्ञानको, जो कि सब जगहके कार्य करनेमें समर्थ है, नित्य-अव्यापक माननेपर भी उसके सब देशों और सब कालोंमें व्यतिरेक प्रसिद्ध नहीं होता और नियमित अन्वयका भो निश्चय नहीं हो सकता। इसलिये शरीरादिक कार्य अन्य कारणोंकी अपेक्षासे भी ईश्वरज्ञानजन्य सिद्ध नहीं होते, यह स्थित हुआ।
११५. इस समय ईश्वरके ज्ञानको जो नित्य-व्यापक मानते हैं उनकी मान्यतामें भी दूपण दिखलाते हैं :
उपयुक्त इसी विवेचनसे व्यापक और नित्य ईश्वरज्ञानका खण्डन जानना चाहिये, क्योंकि वह ईश्वरकी तरह कार्योंका कभी भी क्रमसे जनक नहीं हो सकता है।
११६. ऊपर नित्य और अव्यापक ईश्वरज्ञानमें व्यतिरेकके अभाव 1.मु स प 'वा'।
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