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________________ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका मोक्षका सम्बन्ध आत्मासे है अतः उसके लिये तो केवल आत्मज्ञ होना पर्याप्त है। उपनिषदोंमें भी 'यो आत्मविद् स सर्वविद्' लिखकर आत्मज्ञको ही सर्वज्ञ कहा है। बौद्धोंने भी हेयोपादेय तत्त्वके ज्ञाताको ही सर्वज्ञ' माना है। इस प्रश्नका समाधान दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनोंके आगमोंमें एक-ही-से शब्दोंमें मिलता है और वह है-'जो एकको जानता है वह सबको जानता है। क्योंकि आत्मा ज्ञानमय है और ज्ञान प्रत्येक आत्मामें तरतमांशरूपमें पाया जाता है। अतः ज्ञानरूप अंशी अपने सब अंशों में व्याप्त होकर रहता है। और ज्ञानके अंश जिन्हें ज्ञानविशेष कहा जा सकता है, अनन्त द्रव्य-पर्यायोंके ज्ञायक हैं। अतः अनन्त द्रव्य-पर्यायोंके ज्ञायकस्वरूप ज्ञानांशोंसे परिपूर्ण ज्ञानमय आत्माको जानना ही सबको जानना है। आचार्य कुन्दकुन्दने अपने प्रवचनसारमें तर्कपूर्ण आगमिक शैलीमें आत्माकी सर्वज्ञताका सुन्दर और सरल रोतिसे उपपादन किया है। उसके प्रकाशमें जब हम उनके ही नियमसार३ नामक ग्रन्थके शुद्धोपयोगाधिकारमें आई गाथामें पढ़ते हैं-'व्यवहारनयसे केवली भगवान् सबको जानते-देखते हैं और निश्चयसे आत्माको जानते हैं तो उससे यह भ्रम नहीं होता कि कुन्दकुन्द केवलज्ञानीको मात्र आत्मज्ञानी ही मानते हैं। क्योंकि वह तो कहते हैं कि जो सबको नहीं जानता वह एकको जान ही नहीं सकता। उनके मतसे आत्मज्ञ और सर्वज्ञ ये दोनों शब्द दो विभिन्न दष्टिकोणोंसे एक ही अर्थके प्रतिपादक हैं। अन्तर इतना है कि 'सर्वज्ञ' शब्दमें सब मुख्य हो जाते हैं आत्मा गौण पड़ जाती है,जो निश्चयनयको अभीष्ट नहीं है किन्तु 'आत्मज्ञ' शब्दमें आत्मा ही मुख्य है शेष सब गौण हैं। अतः निश्चयनयसे आत्मा आत्मज्ञ है और व्यवहारनयसे सर्वज्ञ है। आध्यात्मिक दर्शनमें आत्माकी अखण्डता, अनश्वरता, अभेद्यता, शुद्धता आदि ही ग्राह्य है क्योंकि वस्तुस्वरूप ही वैसा है। उसीको प्राप्त करनेका प्रयत्न मोक्षमार्गके द्वारा किया जाता है। अतः प्रत्येक सम्यग्दृष्टि-जिसे निश्चयकी भाषामें आत्मदृष्टि कहना उपयुक्त होगा-आत्माको पूर्णरूपसे जाननेका और जानकर उसीमे स्थित होनका १. हेयोपादेयतत्त्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः । यः प्रमाणमसाविष्टो न तु सर्वस्य वेदकः ॥-प्र० वा० । २. प्रवच. गा० १-४८, ४९ । ३. गा० १५६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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