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________________ प्राक्कथन जिससे ऐसा प्रतीत होने लगता है कि इन्द्रियोंके विना आत्माको ज्ञान और सुख हो ही नहीं सकता । किन्तु ऐसा है नहीं, इन्द्रियके बिना भी ज्ञान और सुख रहता है। अतः जैसे सोनेको आग में तपानेसे उसमें मिले हुए मलके जलाने या अलग हो जानेसे सोना शुद्ध हो जाता है और उसके स्वाभाविक गुण एकदम चमक उठते हैं वैसे ही ध्यानरूपी अग्निमें कर्मरूपी मैलको जला डालनेपर आत्मा शुद्ध हो जाता है और उसके स्वाभाविक गुण अपने पूर्ण रूप में प्रकाशमान हो जाते हैं। आत्माको कर्मरूपी मलसे मुक्त करके अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित करना ही जैनधर्मका चरम लक्ष्य है, उसीका नाम मुक्ति या मोक्ष है । प्रत्येक आत्मा उसे प्राप्त करने की शक्ति रखता है । जब कोई विशिष्ट आत्मा चार घाति कर्मोंको नष्ट करके पूर्ण ज्ञानी हो जाता है तब वह अन्य जीवोंको मोक्ष मार्गका उपदेश देता है । इस तरह एक ओर तो वह वीतरागी हो जाता है और दूसरी तरफ पूर्ण ज्ञानी हो जाता है । ऐसा होनेसे ही न तो उसके कथन में अज्ञानजन्य असत्यता रहती है और न राग-द्वेषजन्य असत्यता रहती है । इसीसे स्वामी समन्तभद्रने आप्तका लक्षण इस प्रकार किया है : आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥ ५ ॥ -रत्नकरण्ड श्रावकाचार 'आप्तको नियमसे वीतरागी, सर्वज्ञ और आगमका उपदेष्टा होना ही चाहिए, विना इनके आप्तता हो नहीं सकती ।' यह कार लिख आये हैं कि ईश्वरवादियोंने ईश्वरको सर्वज्ञ माना है, क्योंकि वह सृष्टिका रचयिता है, साथ ही साथ वह जीवको उसके कर्मोंका फल देता है, वही उसे स्वर्ग या नरक भेजता है, उसीके अनुग्रहसे ऋषियोंके द्वारा वेदका अवतार होता है । किन्तु जैनदर्शन सृष्टिको अनादि मानता है, कर्मफल देनेके लिये भी किसी माध्यमकी उसे आवश्यकता नहीं है । उसे तो मात्र मोक्षमार्गका उपदेश देनेके लिये ही एक ऐसे आप्त पुरुषकी आवश्यकता रहती है जो राग-द्वेषकी घाटीको पार करके और अज्ञानके वीहड़ जङ्गल से निकालकर मनुष्यों को यह बतलाये कि कैसे उस घाटीको पार किया जाता है और किस प्रकार अज्ञान दूर हो सकता है ? आत्मज्ञ बनाम सर्वज्ञ अब प्रश्न यह हो सकता है कि मात्र मोक्षमार्गका उपदेश देनेके लिये सर्वज्ञ होने की या उस उपदेष्टाको सर्वज्ञ माननेकी क्या आवश्यकता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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