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________________ १०४ इदं विभुद्रव्यविशेषगुणत्वं प्रादेशिकत्वमीश्वरज्ञानस्य साधयेत् तद्वदनित्यत्वमपि तदव्यभिचारात् । न हि कश्चिद्विभुद्रव्यविशेषगुणो नित्यो दृष्ट इत्यपि नाशङ्कनीयम्, महेश्वरस्यास्मद्विशिष्टत्वात्तद्विज्ञानस्यास्मद्विज्ञान' विलक्षणत्वात् । न हि अस्मदादिविज्ञाने यो धर्मो दृष्टः स महेश्वरविज्ञानेऽप्यापादयितुं युक्तः, अतिप्रसङ्गात् । तस्यास्मदादिविज्ञानवत्समस्तार्थपरिच्छेदकत्वाभावप्रसक्तेः । सर्वत्रास्मदा दिबुद्ध्यादीनामेवानित्यत्वेन व्याप्तस्य विभुद्रव्यविशेषगुणत्वस्य प्रसिद्धेः । विभुद्रव्यस्य वा महेश्वरस्यैवाभिप्रेतत्वात् । तेन यदुक्तं भवति महेश्वर विशेषगुणत्वात् तदुक्तं भवति विभुद्रव्यविशेषगुणत्वादिति । ततो नेष्टविरुद्धसाधनो हेतुर्यतो विरुद्धः स्यात् । न चैवमुदाहरणानुपपत्तिः, ईश्वरसुखादेरेवोदाहरणत्वात् तस्यापि प्रादेशिकत्वात्साध्यवैकल्याभावात्, महेश्वरविशेविशेषगुण होता है वह अनित्य होता है दोनों में परस्पर अविनाभाव है और इसलिये जिस प्रकार यह विभुद्रव्यविशेषगुणपना ईश्वरज्ञान के प्रादेशिकपना सिद्ध करेगा उसी प्रकार अनित्यपना भी उसके सिद्ध करेगा, क्योंकि वह उसका अव्यभिचारी है। ऐसा कोई विभुद्रव्यका विशेषगुण नहीं देखा जाता जो नित्य हो ।' यह भी शङ्का नहीं करनी चाहिये कारण, महेश्वर हम लोगोंकी अपेक्षा विशिष्ट है और उसका ज्ञान भो हम लोगों के ज्ञानकी अपेक्षा भिन्न है । यह योग्य नहीं है कि हम लोगोंके ज्ञान में जो धर्म ( न्यूनता, अनित्यपना आदि ) देखे जायँ वे ईश्वरके ज्ञानमें भी आपादित होना चाहिये । अन्यथा अतिप्रसङ्ग होगा । वह यह कि जिस प्रकार हम लोगों का ज्ञान समस्त पदार्थोंका जाननेवाला नहीं है उसीप्रकार ईश्वरका ज्ञान भी समस्त पदार्थोंका जाननेवाला सिद्ध न होगा । अतः सब जगह हम लोगोंके बुद्धिआदिगुणोंकी अनित्यता के साथ ही विभुद्रव्यविशेषगुणपनेकी प्रसिद्धि है । अथवा विभुद्रव्य महेश्वर ही हमें अभिप्रेत है । इससे यह अर्थ हुआ कि 'महेश्वरका विशेषगुण है' यह कहो और चाहे 'विभुद्रव्यका विशेषगुण है' यह कहो - एक ही बात है । अतः उक्त अनुमानप्रयोग में 'विभुद्रव्य' पदका अर्थ महेश्वर होनेसे हमारा हेतु इसे विरुद्धका साधक नहीं है जिससे वह विरुद्ध हेत्वाभास कहा जा सके । और इस प्रकारके कथनमें उदाहरणका अभाव नहीं बताया जा सकता है क्योंकि ईश्वर के सुखादिकको ही उदाहरण प्रदर्शित कर सकते हैं । ईश्वरसुखादिक भी प्रादेशिक है, इसलिये वह साध्यविकल नहीं 1 1. सु प 'विज्ञान' इति पाठो नास्ति । आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [ कारिका ३३, ३४, ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only " · www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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