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कारिका ३३, ३४, ३५ ] ईश्वर-परीक्षा
१०३ यद्येकत्र स्थितं देशे ज्ञानं सर्वत्र कार्यकृत् । तदा सर्वत्र कार्याणां सकृत् किं न समुद्भवः ? ॥३३॥ कारणान्तरवैकल्यात्तथाऽनुत्पत्तिरित्यपि । कार्याणामीश्वरज्ञानाहेतुकत्वं प्रसाधयेत् ॥३४॥ सर्वत्र सर्वदा तस्य व्यतिरेकाप्रसिद्धितः । अन्वयस्यापि सन्देहात्कार्य तद्धेतुकं कथम् ॥३५॥
१०१. तदीश्वरज्ञानं तावदव्यापीष्टं प्रादेशिकत्वात्सुखादिवत् । प्रादेशिकमीश्वरज्ञानं विभुद्रव्यविशेषगुणत्वात् । यदित्थं तदित्थम्, यथा सुखादि, तथा चेश्वरज्ञानम्, तस्मात्प्रादेशिकमिति नासिद्धं प्रादेशिकत्वं साधनम् । न च तत्साधनस्य हेतोः सामान्यगुणेन संयोगादिना व्यभिचारः, विशेषग्रहणात् । तथापि विशेषगुणेन रूपादिनाऽनैकान्तिक इति न मन्तव्यम; विभद्रव्यग्रहणात् । तथापीष्टविरुद्धस्यानित्यत्वस्य साधनाद्विरुद्धो हेतुः, विभुद्रव्यविशेषगुणत्वस्यानित्यत्वेन व्याप्तवात् । यथा हि
कार्यों की उत्पत्ति नहीं बन सकती है। अगर एक जगह रहकर वह सब जगह कार्य करता है तो सब जगहके कार्य एक-साथ क्यों उत्पन्न नहीं हो जाते ? अगर कहा जाय कि अन्य कारणोंके अभावसे सब जगहके कार्य एक-साथ उत्पन्न नहीं होते तो यह कथन भी कार्योंको ईश्वरज्ञान हेतुक सिद्ध नहीं कर सकता, क्योंकि सब जगह और सब कालमें ईश्वरज्ञानका व्यतिरेक अप्रसिद्ध है और इसलिये अन्वयमें भी सन्देह है। ऐसो दशामें शरोरादिक कार्य ईश्वरज्ञानहेतुक कैसे सिद्ध हो सकते हैं ?' ___१०१. वैशेषिक-ईश्वरके ज्ञानको हमने अव्यापक स्वीकार किया है, क्योंकि वह प्रादेशिक है-कहों रहता है और कहीं नहीं रहता है, जैसे सूखादिक । ईश्वरका ज्ञान प्रादेशिक है क्योंकि विभुद्रव्यका विशेषगुण है। जो विभुद्रव्यका विशेषगण है वह प्रादेशिक है, जैसे सुखादिक । और विभुद्रव्यका विशेषगुण ईश्वरज्ञान है, इस कारण वह प्रादेशिक है। इस प्रकार प्रादेशिकपना हेतु असिद्ध नहीं है । और न संयोगादि सामान्यगुणके साथ वह व्यभिचारी है, क्योंकि 'विशेष' पदका ग्रहण है। तथा रूपादिविशेषगुणके साथ भी वह अनैकान्तिक नहीं है, क्योंकि 'विभुद्रव्य' पदका ग्रहण है। यदि कहें कि 'उक्त दोष न होनेपर भी हेतु इष्टविरुद्ध
अनित्यपनेका साधन करनेसे विरुद्ध हेत्वाभास है, क्योंकि जो विभुद्रव्यका Jain Education International
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