SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारिका ३०, ३१] ईश्वर-परीक्षा १०१ ६९८. अनित्यं होश्वरज्ञानमीश्वरबुद्धिकायं यदि नेष्यते तदा तेनैव कार्यत्वादिहेतु'स्तनुकरणभुवनादेबुद्धिमत्कारणत्वे साध्येऽनैकान्तिकः स्यात् । यदि पुनर्बुध्यन्तरेण स्वबुद्धिमीश्वरः कुर्वीत तदा परापरबुद्धिप्रतीक्षायामेवोपक्षीणत्वादीश्वरस्य प्रकृतबुद्धेः करणं न स्यादनवस्थानात् । ६ ९९. स्यान्मतम्-प्रकृतबुद्धेः करणे नाऽपूर्वबुद्ध्यन्तरं प्रतीक्षते महेशः । कि तर्हि ? पूर्वोत्पन्नां बुद्धिमाश्रित्य प्रकृतां बुद्धि कुरुते। तामपि तत्पूर्वबुद्धिमित्यनादिबुद्धिसन्ततिरीश्वरस्य ततो नानवस्थेति; तदप्यसतः तथाबुद्धिसन्तानस्य कर्मसन्तानापायै सम्भवाभावात् । क्रमजन्मा हि बुद्धिः परापरत तोरदृष्टविशेस्य क्रमादुत्पद्यते नान्यथा। यदि पुनर्योगजधर्मसन्ततेरनादेरीश्वरस्य सद्भावादयमनुपालम्भः' पूर्वस्मात्समाधिनिम्न प्रकार है : 5. ९८. ईश्वरका अनित्यज्ञान अगर ईश्वरबुद्धिका कार्य नहीं है तो शरीर, इन्द्रिय, जगत् आदिको बुद्धिमान्कारणजन्य सिद्ध करनेमें प्रयुक्त हुए कार्यत्व आदिक हेतु उसी ईश्वरके अनित्यज्ञानके साथ अनैकान्तिक हेत्वाभास हैं । कारण, ईश्वरका अनित्यज्ञान कार्य तो है किन्तु ईश्वरबुद्धिके द्वारा वह उत्पन्न नहीं किया जाता । यदि ईश्वर अपनी बुद्धिको अन्य बद्धिसे उत्पन्न करता है तो अन्य दूसरी आदि बद्धियोंकी प्रतीक्षामें ही ईश्वरकी शक्ति क्षीण हो जानेसे प्रकृत ईश्वरवुद्धि ( ईश्वरके अनित्यज्ञान ) की उत्पत्ति कदापि नहीं हो सकती, क्योंकि अनवस्था आती है। $ ९९. वैशेषिक-महेश्वर अपनी प्रकृत बुद्धिको उत्पन्न करनेके लिये किसी नई बुद्धिकी अपेक्षा नहीं करता। किन्तु पहले उत्पन्न हुई बुद्धिको सहायतासे प्रकृत बुद्धिको उत्पन्न करता है, उस बद्धिको भी उससे पहलेको बुद्धिकी मददसे करता है और इस तरह ईश्वरके हम अनादि बुद्धिसन्तान मानते हैं, अतः अनवस्था दोष नहीं है ? जैन-आपको उक्त मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त प्रकारकी बुद्धिसन्तानकी कल्पना बिना कर्मसन्तानको माने नहीं बनती है। इसका कारण यह है कि जो बुद्धि क्रमसे उत्पन्न होती है वह अदृष्टविशेषरूप तत्तत्कारणोंके क्रमसे पैदा होतो है, इसके अतिरिक्त और किसी प्रकारसे नहीं होती है। अगर कहा जाय कि 'ईश्वरके हम अनादि योगजधर्म 1. द 'दिति हेतु' पाठः । 2. मु स 'पायेऽसम्भवात् पाठः । १. अदोषः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy