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आप्तपरीक्षा - स्वोपज्ञटीका
[ कारिका ३०,३१
कल्पनायां सिद्धान्तविरोधात् । फलत्वे 'चेश्वरज्ञानस्य नित्यत्वं न स्यात्, प्रमाणतस्तस्य समुद्भवात् । ततोऽनुद्भवे तस्य फलत्वविरोधान्न नित्यमीश्वरज्ञानमभ्युपगमनीयम्, तस्य निगदितदोषानुषङ्ग ेण निरस्तत्वात् । [ अनित्येश्वरज्ञानमपि दूषयति ]
१९७ किं तहि ? अनित्यमेवेश्वरज्ञानमित्यपरे । तन्मतमनूद्य निराकुर्वन्नाह
अनित्यत्वे तु तज्ज्ञानस्यानेन व्यभिचारिता । स्वबुद्धितः ||३०||
कार्यत्वादेर्महेशेना करणेऽस्य बुद्ध्यन्तरेण तद्बुद्धेः करणे चानवस्थिति: । नानादिसन्ततिर्युक्ता कर्मसन्तानतो विना ॥३१॥
हालत में सिद्धान्तविरोध आयेगा । तात्पर्य यह कि ईश्वर में नित्य प्रमाणज्ञान और अनित्य फलज्ञान ये दो ज्ञान अवश्य स्वीकार करने पड़ेंगे; क्योंकि उनको स्वीकार किये बिना प्रसिद्ध प्रमाण- फलव्यवस्था नहीं बन सकती है । किन्तु ईश्वर क्या, किसी आत्मामें भी दो ज्ञान वैशेषिक दर्शनने स्वीकार नहीं किये हैं । कारण, सजातीय दो गुण एक जगह नहीं रहते । अतः ईश्वर में उक्त दो ज्ञानोंकी कल्पना करनेमें सिद्धान्तविरोध या सिद्धान्तहानि स्पष्ट है । अगर ईश्वरज्ञानको फल माना जाय तो वह नित्य नहीं रहेगा, क्योंकि प्रमाणसे उसकी उत्पत्ति हुई है और यदि प्रमाणसे उत्पत्ति नहीं हुई तो उसे फल नहीं कहा जा सकता, क्योंकि फल वही कहलाता है जो किसीसे उत्पन्न होता है । अतः ईश्वरज्ञानको नित्य नहीं स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि उसमें उपर्युक्त दोष आते हैं ।
$ ९७. तो क्या है ? अनित्य ही ईश्वरज्ञान है, यह अन्य वैशेषिक मतानुयायी मानते हैं उनके भी इस मतको आचार्य उपस्थित करके निराकरण करते हुए कहते हैं
'यदि ईश्वर के ज्ञानको अनित्य कहा जाय तो कार्यत्व आदि हेतु उसके साथ व्यभिचारी हैं क्योंकि ईश्वर उसे अपनी बुद्धिसे नहीं करता है । यदि अपनी बुद्धिसे उसे करता है तो उस बुद्धिको अन्य बुद्धिसे करेगा और इस तरह अनवस्था नामका दोष आता है । और बुद्धिकी अनादि सन्तान बिना कर्म सन्तानके मानी नहीं जा सकती है।' इसका स्पष्टीकरण
1. मु 'वे' ।
2. व 'दुभवनेऽस्य' पाठः ।
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