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कारिका १९, २०] ईश्वर-परीक्षा
[आचार्यस्तन्निराकरोति ] देहान्तराद्विना तावत्स्वदेहं जनयद्यदि । तदा प्रकृतकार्येऽपि देहाधानमनर्थकम् ॥१९।। देहान्तरात्स्वदेहस्य विधाने चानवस्थितिः । तथा च प्रकृतं कार्यं कुर्यादीशो न जातुचित् ॥२०॥ 5 ८६. यदि होश्वरो देहान्तराद्विनाऽपि स्वदेहमनुध्यानमात्रादुत्पादयेत्, तदाऽन्यदेहिनां निग्रहानुग्रहलक्षणं कार्यमपि प्रकृतं तथैव जनयेदिति तज्जनने देहाधानमनर्थकं स्यात् । यदि पुनर्देहान्तरादेव स्वदेहं विदधीत तदा तदपि देहान्तरमन्यस्मादेहादित्यनवस्थितिः स्यात् । तथा चापरा. परदेहनिर्माण एवोपक्षीणशक्तिकत्वान्न कदाचित्प्रकृतं कार्य कुर्यादीश्वरः । यथैव हि प्रकृतकार्यजननायापूर्व शरीरमीश्वरो निष्पादयति तथैव तच्छरीरनिष्पादनायापूर्व शरीरान्तरं निष्पादयेदिति कथमनवस्था विनिआचार्य आगे बतलाते हैं :
यदि ईश्वर शरीरान्तर ( अन्य शरीर ) के बिना अपने शरीरको उत्पन्न करता है तो समस्त प्राणियोंके शरीरादिक कार्योंको उत्पन्न करने में भी देहधारण करना व्यर्थ है। और यदि शरीरान्तरसे अपने शरीरको बनाता है तो अनवस्था नामका दोष प्रसक्त होता है। ऐसी हालत में प्रकृत शरीरादिक कार्योंको ईश्वर कभी नहीं कर सकेगा।
$ ८६. तात्पर्य यह कि ईश्वर अपने शरीरका जो निर्माणकर्ता है वह शरीरान्तरके बिना ही अपने शरीरको निर्माण करता है या शरीरान्तरसे अपने शरीरको बनाता है ? यदि शरीरान्तरके बिना ही वह अपने शरीरको केवल ध्यानमात्र (चिन्तन करने मात्र ) से उत्पन्न करता है तो दूसरे प्राणियों के निग्रह और अनुग्रहरूप प्रकृत कार्यको भी ध्यानमात्रसे ही उत्पन्न कर देगा फिर उनकी उत्पत्तिके लिये शरीरधारण करना व्यर्थ है। अगर शरीरान्तरसे ही वह अपने शरीरको बनाता है तो शरीरान्तरको अन्य शरीरसे और उस शरीरको अन्य शरीरसे बनायेगा और ऐसी दशामें अनवस्था आती है। और इसप्रकार दूसरे तीसरे आदि शरीरोंके बनाने में ही ईश्वरकी शक्ति क्षीण हो जानेसे वह कभी भी प्रकृत शरीरादिक कार्यको न कर सकेगा। प्रकट है कि जिसप्रकार वह प्रकृत कार्यको उत्पन्न करनेके लिये नये शरीरको बनाता है उसी प्रकार उस शरीरको बनानेके लिये अन्य नये शरीरको बनायेगा । इसप्रकार अनवस्था
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