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कारिका १३] ईश्वर-परीक्षा विरुद्ध्यते चेतनात्मवादिभिः कैश्चिद्वैशेषिकसिद्धान्तमभ्युपगच्छद्धिक्तात्मन्यपि चेतनायाः प्रतिज्ञानात् । चेतना च ज्ञानशक्तिरेव न पुनस्तव्यतिरिक्ता। चितिशक्तिरपरिणामिन्यप्रतिसंक्रमा दर्शितविषया शुद्धा चाऽनन्ता च" [ योगद० भा० १-२] यथा कापिलैरुपवर्ण्यते तस्याः प्रमाणविरोधात् । तथा च महेश्वरस्य कर्मभिरस्पृष्टस्यापि ज्ञानशक्तिरशरीरस्यापि च मुक्तात्मन इव प्रसिद्धा । तत्प्रसिद्धौ च[ केवलया ज्ञानशक्त्या महेश्वरात्कार्योत्पत्त्यभ्युपगमेऽनुमानस्योदाहर
णाभावप्रदर्शनम् ] ज्ञानशक्त्यैव निःशेषकार्योत्पत्तौ प्रभुः किल ।
सदेश्वर इति ख्यानेऽनुमानमनिदर्शनम् ॥ १३ ॥ कर्मरहितके भी बन सकती है, उसका उसके साथ विरोध नहीं है, क्योंकि आत्माको चेतन प्रतिपादन करनेवाले किन्हीं वैशेषिक सिद्धान्तके स्वीकर्ताओंने मुक्तात्मामें भी चेतना ( ज्ञानशक्ति) को स्वीकार किया है । और चेतना ज्ञानशक्ति ही है उससे भिन्न नहीं है अर्थात् ज्ञानशक्तिका नाम ही चेतना है। सांख्यदर्शनके अनुयायी श्रीकृष्णद्वैपायनप्रभृति सांख्यविद्वानोंने जो 'चेतना-चितिशक्तिको अपरिणामी-धर्म और अवस्थालक्षण परिणामरहित, विषयसंचारहीन ( शब्दादिक विषयोंमें न प्रवर्तनेवाली ), बुद्धिद्वारा ज्ञात विषयका अनुभव करनेवाली, शुद्ध ( सुख, दुःख और मोहात्मक अशुद्धिसे रहित ) और अनन्त ( सर्वथा नाशरहित ) वणित किया है वह प्रमाणविरुद्ध है-प्रामाणिक नहीं है । अतः महेश्वरके कर्मरहित और शरीररहित होनेपर भी मुक्तात्माकी तरह उनके ज्ञानशक्ति प्रमाणसे सिद्ध है। और उसके सिद्ध हो जानेपर यह कहा जा सकता है कि___ 'ईश्वर ज्ञानशक्तिके द्वारा ही हमेशा समस्त कार्योंको उत्पन्न करने में समर्थ है।
परन्तु यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि अनुमान उदाहरणरहित है। अर्थात् 'ईश्वर अकेली ज्ञानशक्तिसे ही समस्त कार्योंको उत्पन्न करता है। इस बातको सिद्ध करनेके लिये कहे जानेवाले अनुमानमें उक्त बातका समर्थक कोई उदाहरण उपलब्ध नहीं होता।'
1. द 'शुद्धा वा'। 2. मु व स 'चिच्छक्ति'। 3. मु 'माऽदर्शित' ।
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