SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका १२ तस्य युक्त्याऽननुगृहीतस्य प्रामाण्यविरोधात् । तदनुनाहिकाया युक्तेरसम्भवादेव युक्त्यनुगृहीतस्यापि न तत्रागमस्य सम्भावना यतः प्रमाणेनाबाध्य मानः पक्षो न सिद्ध्येत्, हेतोश्च कालात्ययापदिष्टत्व परिहारो न भवेत् । एतेन सत्प्रतिपक्षत्वं साधनस्य निरस्तम्, प्रतिपक्षानुमानस्य निरवद्यस्य सम्भवाभावसाधनात् । तदेवमस्मादनुमानादैश्वर्यविरहसाधने महेश्वरस्येच्छाप्रयत्नविरहोऽपि साधितः स्याद्धर्मविरहवत्। यथैव हि निःकर्मत्वमैश्वर्यविरहं साधयति तथेच्छाप्रयत्नविरहमपि, तस्य तेन व्याप्तिसिद्धेः। कस्यचिदिच्छावतः प्रयत्नवतश्च परमैश्वर्ययोगिनोऽ पीन्द्रादेनिःकर्मत्वविरोधसिद्धेः। ज्ञानशक्तिस्तु निःकर्मणोऽपि कस्यचिन्न व्यक्ति उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि जो आगम युक्तिसे अपुष्ट है वह तो अप्रमाण होनेसे उसका साधक हो नहीं सकता और जो आगम युक्तिसे पुष्ट है वह उक्त पुरुषका साधक सम्भव नहीं है, क्योंकि उसकी पोषक कोई युक्त ही नहीं है। अतः पक्ष प्रमाणसे सर्वथा अबाधित है और इसलिए हेतु कालात्ययापदिष्ट नहीं है। इसी कथनसे हेतुके सत्प्रतिपक्षपनाका भी परिहार हो जाता है। कारण, उसका प्रतिपक्षी ( विरोधी) निर्दोष अनुमान नहीं है। इस प्रकार इस अनुमानसे ईश्वरके ऐश्वर्यका अभाव सिद्ध हो जानेपर उसके इच्छा और प्रयत्नका अभाव भी सिद्ध हो जाता है, जैसे उसके अनादियोगज धर्मका अभाव सिद्ध है। तात्पर्य यह कि ईश्वरको सर्वथा निष्कर्म माननेपर उसके ऐश्वर्य, इच्छा, प्रयत्न और योगजधर्म इनमेंसे कोई भी सिद्ध नहीं होता। जिस प्रकार कर्मरहितपना नियमसे ईश्वरमें ऐश्वर्यके अभावको सिद्ध करता है उसी प्रकार वह इच्छा और प्रयत्नके अभावको भी सिद्ध करता है क्योंकि उसकी उसके साथ व्याप्ति ( अविनाभाव सम्बन्ध ) है। इन्द्रादिक इच्छावान् और प्रयत्नवान् हैं तथा उत्कृष्ट ऐश्वर्यसे सम्पन्न भी हैं लेकिन उनके कर्मरहितपना नहीं पाया जाता। अतः यह सिद्ध हुआ कि इच्छाशक्ति और प्रयत्नशक्तिका कर्मरहितपनाके साथ विरोध है और इसलिए ईश्वरको सर्वथा कर्मरहित माननेपर उसके न तो इच्छाशक्ति बन सकती है और न प्रयत्नशक्ति । किन्तु ज्ञानशक्ति 1. मु 'प्रामाण्येना' । 2. मु 'पदिष्टत्वं परिहारो' । 3. मु 'तथेच्छाप्रयत्नमपि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy