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________________ ६२ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [ कारिका ९ देरुपपन्नत्वात्। स्वतोऽनर्थान्तरभूतैरेव हि ज्ञानादिपरिणामैरीश्वरस्य परिणामित्वं नेष्यते स्वारम्भकावयवैश्च सावयवत्वं निराक्रियते, न पुनरन्यथा, विरोधाभावात् । न चैवमनिष्टप्रसंगः, द्रव्यान्तरपरिणामैरपि परिणामित्वाप्रसंगात्, तेषां तत्रासमवायात्। ये यत्र समवयन्ति परिणामास्तैरेव तस्य परिणामित्वम् । परमाणोश्च स्वारम्भकावयवाभावेऽपि सप्रदेशत्वप्रसंगो नानिष्टापत्तये नैयायिकानाम, परमाण्वन्तरसंयोगनिबन्धनस्यैकस्य प्रदेशस्य परमाणोरपीष्टत्वात् । न चोपचरितप्रदेशप्रतिज्ञा आत्मादिष्वेवं विरुद्ध्यते, स्वारम्भकावयवलक्षणानां प्रदेशानां तत्रोपचरितत्वप्रतिज्ञानात् । मूतिमद्व्यसंयोगनिबन्धनानां तु तेषां पारमार्थिकत्वादन्यथा सर्वमूर्तिमद्रव्यसंयोगानां युगपद्भाविनामुपचरितत्वप्रसंगात् । अन्वय और व्यतिरेकका बनना शरीरादिकोंमें उपपन्न ( सिद्ध ) हो जाता है । हाँ, अभिन्नभूत ज्ञानादिपरिणामोंसे हम ईश्वरको परिणामी नहीं कहते हैं और न अपने आरम्भक अवयवों ( प्रदेशों) से उसकी सावयवतासप्रदेशीपनेका समर्थन करते हैं, किन्तु उसका निराकरण करते हैं। और प्रकारसे तो, जो कि ऊपर बताया गया है, ईश्वरको परिणामी और सप्रदेशी दोनों मानते हैं, क्योंकि उसमें कोई विरोध नहीं है । और इस प्रकार माननेमें हमें कोई अनिष्ट भी नहीं है। क्योंकि दूसरे द्रव्यगत परिणामोंसे भी ईश्वरको परिणामीपनेका प्रसंग नहीं आता है। कारण, वे उसमें समवायसम्बन्धसे सम्बद्ध नहीं हैं। जो परिणाम जहाँ समवायसम्बन्धसे सम्बद्ध हैं उन्हीं परिणामोंसे वह परिणामी कहा जाता है। यद्यपि परमाणुके अपने आरम्भक अवयव नहीं हैं तथापि उसके सप्रदेशीपनेका प्रसंग नैयायिकोंके लिए अनिष्टकारक नहीं है क्योंकि परमाणुका दूसरे परमाणुके साथ संयोग होनेमें कारणीभूत एक प्रदेश परमाणुके भी स्वीकार किया गया है। और इस प्रकारकी औपचारिक प्रदेशोंकी मान्यता आत्मादिकों में कोई विरुद्ध नहीं है-उनमें भी वह इष्ट है क्योंकि अपने आरम्भक अवयवरूप प्रदेशोंको उनमें उपचारसे स्वीकार किया है। लेकिन मूर्तिमान द्रव्योंके संयोगमें कारणीभूत प्रदेशोंको उनमें पारमार्थिक-अनौपचारिक माना है । यदि वे पारमार्थिक न हों तो समस्त मूर्तिमान् द्रव्योंके एक 1. द स 'स्वतो नार्थान्तरभूतैरेव' । 2. म द 'समवायन्ति । 3. द 'प्रतिज्ञत्वादिष्वेवं'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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