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________________ ४४ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ९ साधनं तदनादित्वं साधयत्येव । तस्य सादित्वे ततः पूर्व तन्वाद्युत्पत्तिविरोधात् तदुत्पत्तौ वा तद्बुद्धिमनिमित्तत्वाभावप्रसङ्गात् । यदि पुनस्ततः पूर्वमन्यबुद्धिमन्निमित्तकत्वमिष्यते तदा ततोऽपि पूर्वमन्यबुद्धिमनिमित्तकत्वमिष्यते तदा ततोऽपि पूर्वमन्यबुद्धिमन्निमित्तकत्वमित्यनादीश्वरसन्ततिः सिद्ध्येत । न चैषा युक्तिमती, पूर्वेश्वरस्यानन्तस्य सिद्धावुत्तरसकलेश्वरकल्पनावैयर्थ्यात्, तेनैव तन्वादिकार्यपरम्परायाः सकलाया निर्माणात् । ततोऽपि पूर्वस्यानन्तस्य महेश्वरस्य सिद्धौ तस्य वैयर्थ्यात् । अन्यथा परस्परमिच्छाव्याघातप्रसंगात् । अनेकेश्वरकारण[ क ]त्वापत्तेश्च जगतः । सुदूरमपि गत्वाऽनादिरेक एवेश्वरोऽनुमन्तव्यः। “स पूर्वे शरीर, इन्द्रिय, जगत् आदि पदार्थ भी चकि कार्य हैं, अतएव उनका भी कोई बुद्धिमान् निमित्तकारण अवश्य होना चाहिये और जो उनका बुद्धिमान् निमित्तकारण है वह ईश्वर है। इस प्रकार सिद्ध हुआ यह साधन ईश्वरके अनादिपनेको सिद्ध करता है। यदि उसके सादिपना हो तो उससे पूर्व शरीरादिककी उत्पत्ति नहीं बन सकेगी। यदि उनकी उत्पत्ति मानी जायगी तो उनके बुद्धिमानिमित्तकारणताका अभाव मानना पड़ेगा। अगर यह कहा जाय कि उससे पहले उन कार्योको हम अन्य बुद्धिमान्निमित्तकारणजन्य मानते हैं तो उससे भी पहले अन्य बुद्धिमानिमित्तकारणजन्य मानना पड़ेगा और उससे भी पहले अन्य बुद्धिमान् निमित्तकारणजन्य, और इस तरह अनादि ईश्वरपरम्परा सिद्ध होगी। लेकिन यह युक्त नहीं है, कारण जब पूर्ववर्ती अनन्त ( अविनाशी ) ईश्वर सिद्ध हो जायगा तो उत्तरवर्ती समस्त ईश्वरोंकी कल्पना व्यर्थ है। क्योंकि वह पूर्ववर्ती अनन्त ईश्वर ही शरीरादिक सम्पूर्ण कार्योंको उत्पन्न कर देगा और यदि उससे भी पहले अनन्त ईश्वर सिद्ध हो तो उक्त अनन्त ईश्वरको भी कल्पना व्यर्थ है। अन्यथा, परस्परमें इच्छाओंका व्याघात ( विरोध) होगा । अर्थात् एक दूसरेकी इच्छाएँ आपस में टकरायेंगी और स्वेच्छानुकल कार्य नहीं हो सकेगा, क्योंकि उसी एक कार्यको एक ईश्वर अन्य प्रकारसे उत्पन्न करना चाहता है और दूसरा किसी अन्य प्रकारसे बनाना चाहता है और इस तरह दोनोंमें परस्पर इच्छाव्याघात अवश्य होगा। दूसरी बात • यह है कि जगत् अनेक ईश्वरकारणक प्रसक्त होगा, जो कि सङ्गत नहीं है। अतएव बहुत दूर जाकर भी एक ही अनादि ईश्वर मानना चाहिए। “वह 1. मु पूर्वे' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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