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________________ कारिका ५] ईश्वर-परीक्षा ३७ ३९. यदि पुनरर्थात्मकः संग्रहोऽभिधीयते तदा संगृह्यत इति संग्रहः; संगृह्यमाणः सकलोऽर्थः स्यात् । स चासिद्ध एव तद्वयवस्थापकप्रमाणाभावादिति कथं तस्य व्याख्यानं युज्यते ? यतः “पदार्थधर्मसंग्रहः प्रवक्ष्यते" [प्रशस्तपा०प०१] इति प्रतिज्ञा साधीयसीष्यते। संग्रहाभावे च कस्य महोदयत्वं साध्यते ?, असिद्धस्य स्वयमन्यसाधनत्वानुपपत्तेः । ४०. एतेन 'पदार्थधर्मसंग्रहः सम्यग्ज्ञानम्' इति व्याख्यानं प्रतिव्यूढम, तदभावस्य समर्थनात् । महतो निःश्रेयसस्याभ्युदयस्य चोदयोऽस्मादिति महोदय इत्येतद् व्याख्यानं२ बन्ध्यासुतसौभाग्यादिवर्णनमिव प्रेक्षावतामुपहासास्पदमाभासते। संग्रह नहीं हो सकता है। ३९. यदि अर्थरूप संग्रह कहा जाय तो 'जो संग्रह किये जायें वह संग्रह है' इस अर्थके अनुसार संग्रह होने योग्य समस्त पदार्थ संग्रह कहे जायेंगे, लेकिन वे असिद्ध हैं-वे सिद्ध नहीं हैं, क्योंकि उनका साधक प्रमाण नहीं है। ऐसी स्थितिमें संग्रहका उक्त व्याख्यान युक्त कैसे हो सकता है, जिससे ‘पदार्थसंग्रह और धर्मसंग्रहको कहेंगे' यह प्रतिज्ञा सम्यक कही जाय । इस तरह जब संग्रहका अभाव है तो किसके महोदयपना सिद्ध करते हैं ? अर्थात् जब संग्रह असिद्ध है तब उसे महोदय बतलाना असंगत है; क्योंकि जो स्वयं असिद्ध है वह अन्यका साधक नहीं हो सकता है। ४०. इस उपरोक्त विवेचनसे यह व्याख्यान कि ‘पदार्थधर्मसंग्रह सम्यग्ज्ञान है' निरस्त हो जाता है, क्योंकि संग्रहके अभावका समर्थन किया जा चुका है। इसी तरह 'महोदय' का यह व्याख्यान कि 'महान्निश्रेयस ( मोक्ष और अभ्युदयस्वर्ग) का उदय जिससे होता है वह महोदय है।' बन्ध्याके पुत्रके सौभाग्यादि वर्णनकी तरह विचारवानोंके समक्ष हँसीके योग्य जान पड़ता है। 1. मु स प 'स्वयमन्यसाधनत्वोपपत्तेः' । १. “पदार्थधर्मैः संगृह्यते इति पदार्थधर्मसंग्रह इत्युक्तम्'–व्योमवती पृ० २० (च)। २. “महानुदयः स्वर्गापवर्गलक्षणोऽस्माद्भवतीति महोदय इत्युक्तः"-व्योमवती पृ० २० (च)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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