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________________ ३६ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ५ प्रत्यक्षात्, योगिन एव तत्संग्रहप्रसङ्गात्, अस्मदादीनां तदयोगात्। न हि योगिप्रत्यक्षादस्मदादयः सम्प्रतियन्ति, योगित्वप्रसङ्गात् । नाप्यनुमानात्, अनन्तद्रव्यादिभेदप्रभेदप्रतिबद्धानामेकशोऽनन्तलिङ्गानामप्रति. पत्तेरस्मदादि प्रत्यक्षात् । अनुमानान्तरात्तल्लि प्रतिपत्तावनवस्थानुषङ्गात् प्रकृतानुमानोदयायोगात्। यदि पुनरागमात्संग्रहात्मकः प्रत्ययः स्यात्, तदा युक्त्यानुग्रहीतात्तयाऽननुगृहोताद्वा ? न तावदाद्यः पक्षः, तत्र युक्तेरेवासम्भवात् । नापि द्वितीयः, युक्त्याऽननुगृहीतस्यागमस्य प्रामाण्यानिष्टः । तदिष्टो वाऽतिप्रसंगात् । न चाप्रमाणकः प्रत्ययः संग्रहः, तेन संगृहीतानामसंगृहीतकल्पत्वात् । और भेदोंके भेदों-प्रभेदोंको विषय नहीं करता है । तात्पर्य यह कि प्रत्ययरूप संग्रह द्रव्यादिके अनन्त भेदों और प्रभेदोंमें रहेगा, सो उसका ज्ञान तभी हो सकता है जब द्रव्यादिके भेद-प्रभेदोंका ज्ञान पहले हो जाय, परन्तु हम लोगों के प्रत्यक्षसे उनका ज्ञान नहीं होता तब उनमें रहनेवाला प्रत्ययरूप संग्रह हमारे प्रत्यक्षसे कैसे जाना जा सकता है ? योगिप्रत्यक्षसे भी वह प्रतीत नहीं होता। अन्यथा योगीके ही उक्त पदार्थों का संग्रह सिद्ध होगा, हम लोगोंके नहीं। यह प्रकट है कि हम योगी के प्रत्यक्षसे नहीं जानते हैं । नहीं तो हम लोग भी योगी हो जायेंगे। अनुमानसे भी वह नहीं प्रतीत होता है क्योंकि द्रव्यादि अनन्त भेदों और प्रभेदोंसे सम्बद्ध अनन्त लिङ्गोंका एक-एक करके हम लोगों के प्रत्यक्षसे ज्ञान सम्भव नहीं है । तथा अन्य अनुमानसे उक्त लिङ्गोंका ज्ञान करनेपर अनवस्था दोष आता है और उस हालतमें प्रकृत अनुमानका उदय नहीं हो सकता। यदि आगमसे संग्रहरूप प्रत्यय जाना जाता है, यह कहा जाय तो यह बतलायें कि वह आगम युक्तिसे सहित है या युक्तिसे रहित ? पहला कल्प तो ठीक नहीं है क्योंकि आगममें युक्ति असम्भव है। दूसरा कल्प भी ठीक नहीं है क्योंकि युक्तिरहित आगमको प्रमाण नहीं माना गया है । यदि उसे प्रमाण माना जाय तो दूसरे मतोंके युक्तिरहित आगम भी प्रमाणकोटिमें आ जायेंगे। इस तरह प्रत्ययरूप संग्रह भी किसी भी प्रमाणसे प्रतिपन्न नहीं होता और अप्रामाणिक प्रत्ययसे जो पदार्थ ग्रहण किये जायेंगे वे अग्रहणके ही तुल्य हैं। मतलब यह कि प्रत्ययरूप संग्रह भी प्रमाणसे उपपन्न नहीं होता और इसलिये उसके द्वारा उक्त पदार्थोंका 1. मु 'रस्मदाद्यप्रत्यक्षात्' पाठः । 2. द 'प्रामाणिकः' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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