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________________ कारिका ५ ] ईश्वर-परीक्षा ३३ चकम, तस्य प्रतिवाच्यभेदात् । अन्य एव हि गौरिति शब्दः पशोर्वाचकोऽन्यश्च दिगादेः, अर्थभेदाच्छब्दभेदव्यवस्थितेः। अन्यथा सकलपदार्थस्यैकपदवाच्यत्वप्रसंगादिति; तस्याप्यनिष्टानुषङ्गः स्यात्; द्रव्यमिति पदस्याप्यनेकत्वप्रसंगात्। पृथिव्याद्यनेकार्थवाचकत्वात्। अन्यदेव हि पृथिव्यां द्रव्यमिति पदं प्रवर्तते। अन्यदेवाप्सु तेजसि 'वायावाकाशे काले दिश्यात्मनि मनसि चेत्येकपदवाच्यत्वं द्रव्यपदार्थस्यासिद्ध स्यात् । ३५. ननु द्रव्यत्वाभिसम्बन्ध एको द्रव्यपदस्यार्थो नानेकः पृथिव्यादिः, तस्य पृथिव्यादिशब्दवाच्यत्वात् । तत एकमेव द्रव्यपदं नानेकमिति चेत्, किमिदानों द्रव्यत्वाभिसम्बन्धो द्रव्यपदार्थः स्यात् ? न चासौ द्रव्यपदार्थस्तस्य द्रव्यत्वोपलक्षितसमवायपदार्थत्वात् । एतेन गुणत्वाभिसम्बन्धो गुणपदस्यार्थः, कर्मत्वाभिसम्बन्धः कर्मपदस्येत्येतत्प्रतिव्यूढम्, वाचक नहीं है, क्योंकि वह प्रत्येक वाच्य ( अर्थ ) की अपेक्षा भिन्न है । दूसरा हो 'गौ' शब्द पशुका वाचक है और दूसरा हो दिशा आदिकका वाचक है। कारण, अर्थकी भिन्नतासे शब्दकी भिन्नता मानी गई है। यदि ऐसा न हो तो समस्त पदार्थ भी एकपदके वाच्य हो जायेंगे ? समाधान-इस प्रकारसे कहनेवालेको, जो इष्ट नहीं है उसका, प्रसंग आयेगा । कारण, 'द्रव्य' यह पद भी अनेक हो जायेगा, क्योंकि वह पृथिवी आदि अनेक अर्थोंका वाचक है। यह प्रकट है कि दूसरा हो 'द्रव्य' पद पृथिवीमें प्रवृत्त होता है और दूसरा ही जल, अग्नि, हवा, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मनमें प्रवृत्त होता है। इस तरह 'एकपदका अर्थपना' द्रव्यपदार्थ में असिद्ध हो जायगा। ३५. शङ्का-द्रव्यके साथ जो द्रव्यत्वका सम्बन्ध है वह द्रव्यपदका अर्थ है पृथिव्यादि अनेक उसका अर्थ नहीं है, क्योंकि पृथिवी आदिक पृथिवी आदि शब्दोंद्वारा अभिहित होते हैं। अतः द्रव्यपद एक ही है, अनेक नहीं? समाधान-यदि ऐसा कहा जाय तो यह बतलाये कि वह द्रव्यत्वाभिसम्बन्धरूप द्रव्यपदार्थ क्या है ? वह द्रव्यपदार्थ तो हो नहीं सकता, क्योंकि वह द्रव्यत्वविशिष्ट समवायपदार्थ कहा गया है। इसी कथनसे गुणत्वके सम्बन्धको गुणपदका अर्थ, और कर्मत्वके सम्बन्धको कर्मपदका अर्थ मानना खण्डित हो जाता है, क्योंकि गुणत्वका सम्बन्ध गुणत्वसे विशिष्ट समवाय 1. मु 'वाय्वा' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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