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________________ ३२ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ५ ___ ३३. सोऽपि न विपश्चित्; सेनाशब्दादनेकत्र हस्त्याद्यर्थे प्रतीतिप्रवृतिप्राप्तिसिद्धेः। वनशब्दाच्च धवखदिरपलाशादावनेकत्रार्थे । यत्र हि शब्दात्प्रतीतिप्रवृत्तिप्राप्तयः समधिगम्यन्ते स शब्दस्यार्थः प्रसिद्धस्तथा वृद्धव्यवहारात् । न च सेनावनादिशब्दात्प्रत्यासत्तिविशेषे प्रतीतिप्रवृत्तिप्राप्तयोऽनुभयन्ते, येन स तस्यार्थः स्यात् । प्रत्यासत्तिविशिष्टा हस्त्यादयो धवादयो वा सेनावनादिशब्दानामर्थ इति चेत्, सिद्धस्त.कपदवाच्योऽनेकोऽर्थः । तेन च कथमेकपदवाच्यत्वं न व्यभिचरेत् ? तथा गौरिति पदेनैकेन पश्वादेर्दशप्रकारस्यैकादशप्रकारस्य वा वाच्यस्य दर्शनाच्च व्यभिचारी हेतुः। $ ३४. कश्चिदाह--न गौरित्येकमेव पदं पश्वादेरनेकस्यार्थस्य वा ३३. समाधान-यह प्रतिपादन भी सम्यक नहीं है, क्योंकि 'सेना' शब्दसे हाथी आदि अनेक अर्थोंमें प्रतीति, प्रवृत्ति और प्राप्ति जानी जातो है। इसी प्रकार 'वन' शब्दसे धव, खदिर ( खैर ), पलाश ( छेवला) आदि अनेक वृक्षादिक पदार्थों में प्रतीति, प्रवृत्ति और प्राप्ति देखी जाती है। और यह स्पष्ट है कि जिस अर्थमें शब्दसे प्रतीति, प्रवृत्ति और प्राप्ति ये तीनों जानी जाती हैं वह शब्दका अर्थ है, क्योंकि ऐसा वृद्धजनों ( बड़ों) का व्यवहार है। लेकिन 'सेना', 'वन' आदि शब्दसे उल्लिखित सम्बन्धविशेष में प्रतीति, प्रवृत्ति और प्राप्ति ये तीनों ही प्रतीत नहीं होते, जिससे कि सेना, वन आदिक शब्दोंका उक्त सम्बन्धविशेष अर्थ होता। अतएव इन शब्दोंका सम्बन्धविशेष अर्थ न होकर हाथी आदिक और धव आदिक अनेक पदार्थ अर्थ समझना चाहिये।। यदि यह कहा जाय कि उक्त सम्बन्धविशेषसे विशिष्ट हाथी आदिक और धव आदिक पदार्थ सेना-वनादि शब्दोंका अर्थ है और इसलिये उपयुक्त कोई दोष नहीं है तो एकपदका अर्थ अनेक पदार्थ सिद्ध हैं। तात्पर्य यह कि जब सम्बन्धविशेषसे विशिष्ट अनेक पदार्थोको सेना-वनादि शब्दोंका अर्थ मान लिया गया तब अनेक पदार्थ उन शब्दोंका अर्थ सुतरां सिद्ध हो जाता है। और ऐसी हालतमें एकपदका अर्थपना उसके साथ कैसे व्यभिचारी न होगा ? तथा 'गौ' इस एकपदके द्वारा पशु आदिक दश अथवा ग्यारह प्रकारके अर्थ स्पष्टतः देखे जाते हैं । अतः उसके साथ भी 'एकपदका अर्थपना' हेतु व्यभिचारी है। ६३४. शङ्का-'गौ' यह एक ही पद पशु आदिक अनेक अर्थोंका 1. मु व 'गम्यते'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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