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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ५ $२१. ननु चानान्येषामन्य' योगव्यवच्छेदाभावेऽपि भगवतः परमेष्ठिनस्तत्त्वोपदेशादनुष्ठानं प्रतिष्ठामियत्येव', तेषामविरुद्धभाषित्वादिति चेतन; परस्परविरुद्ध समयप्रणयनात्तत्त्वनिश्चयायोगात्, तदन्यतमस्याप्युपदेशप्रामाण्यानिश्चयादनुष्ठानप्रतिष्ठानुपपत्तेः।
२२. ननु मोक्षोपायानुष्ठानोपदेशमात्रे नेश्वरादयो विप्रतिपद्यन्ते । ततोऽहंदुपदेशादिवेश्वरायुपदेशादपि नानुष्ठानप्रतिष्ठानुपपन्ना, यतस्तद्व्यवच्छेदेन परमेष्ठी निश्चीयत इति कश्चित् "सोऽपि न विशेषज्ञः,
२१. शङ्का-अन्यों-महेश्वरादिकोंका व्यवच्छेद न करके भो भगवान्-अरहन्त परमेष्ठीका तत्त्वोपदेश-प्रामाणिक उपदेश होनेसे उनका मोक्षमार्गानुष्ठान प्रतिष्ठित हो जायगा; क्योंकि वे विरुद्धभाषी-प्रमाणविरोधी कथन करनेवाले नहीं हैं, अतः महेश्वरादिकका व्यवच्छेद करना अनावश्यक और व्यर्थ है ?
समाधान-नहीं, परस्पर अथवा पूर्वापरविरोधी शास्त्रों एवं सिद्धान्तोंका प्रणयन-प्ररूपण करनेसे तत्त्वका-यथार्थताका निश्चय ( निर्णय ) नहीं हो सकता है । अतएव महेश्वरादिकोंमें किसो एकके भी उपदेशको प्रामाणिकताका निश्चय न हो सकनेसे अरहन्त परमेष्ठीका भी मोक्षमार्गानुष्ठान प्रतिष्ठित नहीं हो सकता है । इसलिये अन्योंका व्यवच्छेद करना आवश्यक और सार्थक है।
$ २२. शङ्का-मोक्षमार्गानुष्ठानके सामान्य उपदेशमें महेश्वरादिकको कोई विवाद नहीं है । अतः अर्हन्तके उपदेशकी तरह महेश्वरादिकके उपदेशसे भी मोक्षमार्गानुष्ठानकी प्रतिष्ठा अनुपपन्न-असम्भव नहीं है-वह महेश्वरादिकके उपदेशसे भी बन सकती है तब उनका व्यवच्छेद करके परमेष्ठीका निश्चय करना उचित नहीं है ?
समाधान-नहीं, अरहन्त और महेश्वरादिकमें जो भेद है, मालम होता है उसे शंकाकार महाशयने नहीं समझ पाया है। यदि महेश्वरादिकका व्यवच्छेद करके परमेष्ठीका निश्चय न किया जाय तो दोनों के उपदेशोंमें सम्यक् और मिथ्याका निर्णय नहीं हो सकता है। अर्थात् फिर १. 'अन्यः' शब्दोऽतिरिक्तः प्रतिभाति । २. प्राप्नोत्येवेत्यर्थः । ३. विवादं कुर्वन्ति । ४. वैशेषिकादिः। ५. जैनं उत्तरयति सोऽसीति ।
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