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________________ कारिका २] परमेष्ठिगुणस्तोत्रप्रयोजन सिद्धिस्तद्विनेयमुख्यानाम्, तेभ्यश्च स्वशिष्याणामिति 'गुरुपर्व ' क्रमात्सूत्रकाराणां परमेष्ठिनः प्रसादात्प्रधानभूत' परमार्थस्य श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिरभिधीयते । प्रसादः पुनः परमेष्ठिनस्तद्विनेयानां प्रसन्न मनोविषयत्वमेव, वीतरागाणां तुष्टिलक्षणप्रसादासम्भवात्, कोपासम्भववत् । तदाराधकजनैस्तु प्रसन्नेन मनसोपास्यमानो भगवान् 'प्रसन्नः' इत्यभिधीयते, रसायनवत् । यथैव हि प्रसन्नेन मनसा रसायनमासेव्य तत्फलमवाप्नुवन्तः सन्तो 'रसायनप्रसादादिदमस्माकमारोग्यादिफलं समुत्पन्नम्' इति प्रतिपद्यन्ते तथा प्रसन्नेन मनसा भगवन्तं परमेष्ठिनमुपास्य तदुपासनफलं श्रेयोमार्गाधिगमलक्षणं प्रतिपद्यमानास्तद्विनेयजनाः 'भगवत्परमेष्ठिनः प्रसादादस्माकं श्रेयोमार्गाधिगमः सम्पन्नः' इति समनुमन्यन्ते । ततः बारह अङ्गका निर्माण होता है । इस तरह पर और अपर परमेष्ठियोंद्वारा रचित भाव और द्रव्य दोनों ही तरहके श्रुतकी प्राप्ति उनके अपने प्रमुख शिष्यों आचार्यादिकों को होती है तथा उनसे उनके अपने शिष्यों अर्थात् प्रशिष्यों को होती है । इस प्रकार गुरुपरम्पराक्रम ( आनुपूर्वी ) से सूत्रकार ( तत्त्वार्थ सूत्रकार आचार्य उमास्वाति ) अथवा सूत्रकारों (निःश्रेयसप्रति - पादक सूत्ररचयिताओं) को परमेष्ठी के प्रसादसे प्रधानभूत यथार्थ मोक्षमार्गी सम्यक्प्राप्ति और सम्यक्ज्ञान होता है, यह प्रतिपादित हो जाता है । -- यहाँ यह और जान लेना चाहिये कि परमेष्ठी में जो प्रसाद- - प्रसन्नतागुण कहा गया है वह उनके शिष्यों का प्रसन्नमन होना ही उनकी प्रसन्नता है, क्योंकि वीतरागों के तुष्ट्यात्मक प्रसन्नता सम्भव नहीं है । जैसे क्रोधका होना उनमें सम्भव नहीं है । किन्तु आराधक जन जब प्रसन्न मनसे उनकी उपासना करते हैं तो भगवान्‌को 'प्रसन्न' ऐसा कह दिया जाता है । जैसे प्रसन्न मनसे रसायन ( औषधि ) का सेवन करके उसके फलको प्राप्त करनेवाले समझते हैं और शब्दव्यवहार करते हैं कि 'रसायन ( दवाई ) के प्रसाद ( अनुग्रह ) से यह हमें आरोग्यादि फल मिला अर्थात्, हम अच्छे हुए'। उसी प्रकार प्रसन्न मनसे भगवान् परमेष्ठीकी उपासना करके उसके फल-श्रेयोमार्ग के ज्ञानको प्राप्त हुए उनके शिष्यजन मानते हैं कि 'भगवान् १. गुरुपरम्परानुपूर्व्याः । २. इच्छापर्यायरूपः । 1. मु' पूर्व' । 2. द 'प्रधानागममार्गस्य' । ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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