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________________ कारिका २] योगतामपि लभन्ते । ततो न कश्चिद्दोषः । ९. 1 7 कथमात्मनः पूर्वापातकर्मणां निर्जरा सिद्ध्येत् ? इति; अभिक्वचिदात्मनि कार्त्स्यतः पूर्वापात्तानि कर्माणि निर्जीर्यन्ते तेषां विपाकान्तत्वात् । यानि तु न निर्जीर्यन्ते तानि न विपाकान्तानि, यथा कालादीनि । विपाकान्तानि च कर्माणि । तस्मान्निर्जीर्यन्ते । विपाकान्तत्वं नासिद्धं कर्मणाम् । तथा हि-विपाकान्तानि कर्माणि, फलावसानत्वात् ब्रीह्यादिवत् । तेषामन्यथा नित्यत्वानुषङ्गात् । न च नित्यानि कर्माणि नित्यं तत्फलानुभवनप्रसङ्गात् । यत्र चात्मविशेषे अनागतकर्मबन्धहेत्वभावादपूर्वकर्मानुत्पत्तिस्तत्र पूर्वोपात्तकर्मणां यथाकालमुपक्रमान्च फलदानात्कार्त्स्न्येन निर्जरा प्रसिद्धैव । ततः कृत्स्नबन्धहेत्वभावनिर्जरावत्त्वं साधनं प्रसिद्धं कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षं [साध्यं] साधयत्येव । ततस्तलक्षणं परं निश्रेयसं व्यवतिष्ठते । तथा 'आर्हन्त्यलक्षणमपरं सुनिश्चिताएक है, उसमें विरोधादि कुछ भी दोष नहीं है । इस तरह हेतुका विशेषण अंश सिद्ध है । ९९. शङ्का - आत्मामें संचित कर्मोंको निर्जरा कैसे सिद्ध होती है ? समाधान- इस तरह - किसी आत्मामें संचित कर्म सम्पूर्ण रूपसे निर्जीर्ण ( नष्ट ) हो जाते हैं, क्योंकि वे विपाकान्त ( विपाक तक ठहरनेवाले) हैं । जिनकी निर्जरा नहीं होती वे विपाकान्त नहीं होते, जैसे कालादिक | और विपाकान्त कर्म हैं, इसलिये उनकी निर्जरा जरूर हो जाती है | यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि कर्मोंमें विपाकान्तपना असिद्ध है, क्योंकि उनमें विपाकान्तपना निम्न अनुमानसे सिद्ध होता है - कर्म विपाकान्त हैं । कारण, वे फल देने तक ही ठहरते हैं । जैसे धान्य वगैरह । अन्यथा उन्हें नित्य मानना पड़ेगा, पर कर्म नित्य नहीं हैं, क्योंकि नित्य मानने पर सदैव उनका फलानुभवन होगा । अतएव जिस आत्माविशेष में बन्धहेतुओं- आस्रवोंके अभावसे नवोन कर्मोंकी उत्पत्ति रुक गई है, अर्थात् संवर हो गया है उसी आत्माविशेष में संचित कर्मो का नियत समय पर अथवा तपश्चर्या आदिसे फल देकर सम्पूर्णतया झड़ जाना रूप निर्जरा भी प्रसिद्ध है और इस तरह 'संवर और निर्जरावान्' रूप हेतु सिद्ध होकर 'समस्त कर्मों के सर्वथा क्षय' रूप साध्यको अच्छी तरह सिद्ध करता है । अतः 'समस्त कर्मों का सर्वथा क्षय होना परनिःश्रेयस है' यह व्यवस्थित हो गया । तथा अरहन्त अवस्थाका प्राप्त होना अपरनिःश्रेयस है, क्योंकि उसके Jain Education International परमेष्ठिगुणस्तोत्र प्रयोजन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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