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________________ उदय और उदीरणांसम्बन्धी खुलासा १९ जुगुप्सातें गुणें तिनतें दूणे ११०५९२ भंग भए । बहुरि सत्तावनका उदयविषै पचावनकेवत् ही ५५२९६ भंग जानने । बहुरि तिनविर्षे उद्योत प्रकृति मिलाएं तहां छप्पन सत्तावन अट्ठावनका उदय हो है । तहां भंग तीनों जायगा पूर्वोक्त प्रकार ही जानने । बहुरि मनुष्यगतिविषै तिर्यंचवत् उदय जानना । विशेष इतना-तहां उद्योत सहित उदय नाहीं है । बहुरि तहां दोऊ गोत्रनिका उदय संभवे है, तातें तिर्यंचगतिविष कहे भंगनित तीनों जायगा गोत्रके बदलनेतैं दूणा भंग जानने । बहुरि देवगतिविर्षं नरकवत् उदय जानना । विशेष इतना - इहां नामकी प्रशस्त प्रकृतिहीका अर उच्चगोत्रका अर मोहविषै नपुंसक वेद विना स्त्री पुरुषविषै कोई एक वेदका उदय पाइए है। तहां दोय वेदके बदलनेतें नरक गतिविषै कहे भंगनितें तीनों जायगा दूणे भंग जानने । ए भंग निद्राका उदय रहित जीवनिकी अपेक्षा कहे । बहुरि इन च्यारयो गतिविषै जे उदय कहे तिनविषै निद्रा प्रचलाविषै कोई एक प्रकृति मिलाएं एक एक प्रकृतिनिकरि अधिक उदय हो है । तहां इन दोऊ प्रकृतिनिके बदलनेत सर्वत्र पूर्वोक्त भंगनितैं दूणे भंग जानने ।। २८ ।। अब प्रकृत में उदय योग्य प्रकृतियोंके स्थिति और अनुभागको बतलाते हैं उदाणं उदये पत्तेक्कठिदिस्स वेदगो होदि । विचाणमसत्थे सत्थे उदयल्लरसमुत्ती ।। २९ ॥ 9 उदयवतामुदये प्राप्ते एकस्थितिकस्य वेदको भवति । द्विचतुःस्थानमस्ते शस्ते उदीयमानरसभुक्तिः ॥ २९ ॥ सं० टी० - उदयवतां कर्मणामुदयं प्रति उदयमुद्दिश्य एकस्थितेरुदयागतस्यैकनिषेकस्य वेदकोऽनुभविता भवति स जीवः, उदयवत्प्रकृतीनामप्रशस्तानां द्विस्थानगतस्य रसस्य प्रशस्तानां चतुः स्थानगतस्य रसस्य भुक्तिरनुभवस्तेन जीवेन क्रियते ॥ २९ ॥ अथ तस्य प्रदेशोदयमुदीरणां बब्रवीति — स० चं० – उदयवान प्रकृतिनिका उदय अपेक्षा एक स्थिति जो उदयकों प्राप्त भया एक निषेक ताहीका भोक्ता सो जीव हो है । बहुरि अप्रशस्त प्रकृतिनिका द्विस्थानरूप अर प्रशस्त प्रकृतिनिका चतुःस्थानरूप अनुभागका भोगवना ताक हो है ॥ २९ ॥ अब प्रकृतमें प्रदेशोदय और उदीरणाको बतलाते हैं Jain Education International अजहण्णमणुक्कस्सप्पदेसमणुभवदि सोदयाणं तु । उदयिल्लाणं पर्याडचउक्काणमुदीरगो होदि ॥ ३० ॥ अजघन्यमनुत्कृष्टप्रदेशमनुभवति सोदयानां तु । उदयवतां प्रकृतिचतुष्काणामुदीरको भवति ॥ ३० ॥ १. ध० पु० ६, पृ० २१३ । जयध० पु० १२, पृ० २२० । २. उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण बिज्जदि विसेसो । मोत्तूण तिण्णि द्वाणं पमत्त जोगी अजोगी य । गो० क०, गा० २७८ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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