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लब्धिसार
देवगतावपि ' नरकगतिवत् । अयं तु विशेषः -- तत्र नामकर्म प्रकृतयः प्रशस्ता एव, उच्चैर्गोत्रमेव, मोहप्रकृतिषु नपुंसकवेदमपनीय स्त्रीपुंवेदद्वयमेलनात् द्विगुणभंगा:अतः कारणात् स्थलत्रयेऽपि भंगा एवं -
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५४ ५५ ५६ । पुनर्निद्रया प्रचलया वा युक्ताः पूर्वोक्ता एव गतिचतुष्टये प्रकृतयः एकाधिका भवंति, ३२ ६४ ३२
भंगारच पूर्वोक्ता एव निद्राप्रचलाभंगद्वयेन गुणिता भवंति ।। २८ ।। अथ प्रथमसम्यक्त्वाभिमुखस्य विशुद्धमिथ्यादृष्टेरुदययोग्य प्रकृतीनां स्थित्यनुभागौ व्याचष्टे -
अब प्रकृतमें उदय प्रकृतियोंको बतलाते हैं
स० चं० – प्रथम सम्यक्त्व सन्मुख जीव नरकगतिविषै ज्ञानावरणकी पाँच ५, दर्शनावरणकी निद्रादि पाँच विना च्यारि ४, अन्तरायकी पाँच ५, मोहनीयकी दश १० वा नव वा आठ, आयुकी एक नरकायु, नामकी भाषापर्याप्ति कालविषै उदय आवने योग्य गुणतीस, तिनिके नाम गति १, जाति १, शरीर ३, अंगोपांग १, निर्माण १, संस्थान १, वर्णचतुष्क ४, अगुरुलघु १, स्थिरयुगल २, शुभयुगल २, स १, बादर १, पर्याप्त १, दुभंग, अनादेय १, अयशस्कीर्ति १, प्रत्येक १, उपघात १, परघात १, उश्वास १, अशुभविहायोगति १, दुःस्वर १, ए जाननी । बहुरि वेदनीयकी एक कोई, गोत्रकी एक नीच गोत्र असें इनि प्रकृतिनिका उदय है । इहां मोहनीयकी वा नामकी उदय प्रकृतिनिका अर प्रकृति बदलतें भंग हो है तिनिका गोम्मटसारविषै कर्मकांडका जो स्थानसमुत्कीर्तन अधिकार तिहिविषै विशेष वर्णन है तहाँतें जानना । असें मोहनीयकी मिथ्यात्व अर अनंतानुबंधी आदि च्यारि प्रकार क्रोधादिविषै कोई एक अर नपुंसक वेद अर हास्य शोक युगलविषै एक, रति अरति युगलविष एक असे आठ प्रकृति सहित कोई जीवकें चौवन प्रकृतिका उदय हो है । तहाँ मोहनीयके च्यारि कषाय अर दोय युगलके बदलनेतें आठ भंग अर दोय वेदनीयके भंगनितें गुणें सोलह भंग हो हैं । नामकी अप्रशस्तहीनिका इहां उदय है, तातैं नामकर्मकी अपेक्षा भंग नाहीं हैं । बहुरि भय वा जुगुप्सा विषै कोई एक मिलाएं मोहकी नव सहित पचवनका उदय होइ । तहां पूर्वोक्त सोलह भंगनिक भय जुगुप्साकरि गुणें बत्तीस भंग हो हैं । बहुरि भय जुगुप्सा दोऊनि करि युक्त मोहकी दश सहित छप्पन प्रकृतिका उदय होइ, तहां सोलह ही भंग जानने, जातैं इहां दोऊनिका उदय युगपत् है । इहां क्रोध सहित अन्य प्रकृति लगाएं प्रथम भंग, क्रोधकी जायगा मान कहैं दूसरा भंग, असें ही प्रकृति बदलनेतैं भंगनिका होना जानना ।
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बहुरि तिर्यंच गतिविषै पूर्वोक्त प्रकृतिनिविषै एक संहनन मिलाए पंचावन, छप्पन, सत्तावनका उदय जानना । तहां पचावन उदय विषै इहां तीनों वेद पाइए, तातैं तिनके बदलने तें मोह भंग चौईस हो हैं । अर वेदनीयके दोय । अर नामके 'संठाणे संहडणे' इत्यादि सूत्रकरि छह संस्थान, छह संहनन, विहायोगतियुगल, सुभगयुगल, स्वरयुगल, आदेययुगल, यशस्कीर्तियुगल इनके बदलतें ग्यारहसै बावन भंग हो हैं, जातें इहां इन सबनिका उदय संभव है । जैसे ए भंग कहे । इनकौं परस्पर गुणें पचावन हजार दोयसै छिनवे भंग भए । बहुरि छप्पनका उदयविषै भय
१. ध० पु० ६, पृ० २१३ । जयध० पु० १२, पु० २१९ ।
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