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________________ चौंतीस बंधापसरणोंका निर्देश हैं ते ज्ञानावरण दर्शनावरण अंतरायकी उगणीस १९ सातावेदनीय १, मिथ्यात्व १ कषाय सोलह १६ पुरुषवेद १ हास्य १ रति १ भय १ जुगुप्सा १, अप्रमत्तकी अठाईस २८, उच्चगोत्र १ औसैं इकहत्तरि प्रकृति बांधे हैं ॥ २० ॥ विशेष-प्रथमदंडकमें इस गाथासूत्रमें जिन ४३ प्रकृत्तियोंका क्रमोल्लेख है वे और अप्रमत्तसंयतके बँधनेवाली अन्य जो २८ प्रकृतियाँ हैं वे सब मिलाकर ७१ प्रकृतियाँ परिगणित की गई हैं। अथाप्रमत्तस्याष्टाविंशति प्रकृतीरुद्दिशति देव-तस-वण्ण-अगुरुचउक्कं समचउर-तेज-कम्मइयं । सग्गमणं पंचिंदी थिरादिण्णिमिणमडवीसं ॥ २१ ॥ देवत्रसवर्णागुरुचतुष्कं समचतुरस्रतेजः कार्मणकम् । सद्गमनं पंचेंद्रियस्थिरादिषण्णिर्माणमष्टाविंशम् ॥ २१ ॥ सं० टी०-देवत्रसवर्णागुरुचतुष्काणि समचतुरस्रसंस्थानं तैजसं कार्मणं सद्गमनं पंचेंद्रियजातिः स्थिरादिषट्कं निर्माणमित्यष्टाविंशतिः ।। २१ ॥ अप्रमत्तजीवके बन्ध योग्य उक्त २८ प्रकृतियोंका निर्देश स० चं-देवचतुष्क ४, त्रसचतुष्क ४, वर्णचतुष्क ४, अगुरुलघुचतुष्क ४, समचतुरस्र १, कार्माण १, तैजस १, शुभविहायोगति एक १, पंचेंद्री १, स्थिर आदि छह ६, निर्माण १ ए अठाईस प्रकृति अप्रमत्तसंबंधी जाननी ।। २१ ॥ अथ देवनरकगत्योः प्रथमसम्यक्त्वाभिमुखमिथ्यादृष्टिना बध्यमानाः प्रकृतीरुद्दिशति तं सुरचउक्कहीणं णरचउवज्जजुद पयडिपरिमाणं । सुरछप्पुडवीमिच्छा सिद्धोसरणा हु बंधंति ॥ २२ ॥ तत् सुरचतुष्कहीनं नरचतुर्वज्रयुतं प्रकृतिपरिमाणं । सुरषट्पृथिवीमिथ्याः सिद्धापसरणा हि बध्नंति ॥ २२॥ सं० टी०–तत्सुरचतुष्कहीनं नरचतुष्कवज्रयुतं प्रकृतिपरिमाणं सुरषट्कपृथ्वीमिथ्यादृष्टयः सिद्धापसरणाः खलु बध्नति । तिर्यग्मनुष्यबन्धप्रकृतिषु सुरचतुष्कमपनीय नरचतुष्के वज्रवृषभनाराचसंहनने च प्रक्लुप्ते द्विसप्ततिं प्रकृतीः प्रसिद्धबन्धापसरणाः सुरमिथ्यादृष्टयः षट्पृथ्वीनारकमिथ्यादृष्टयश्च बध्नति ।। २२ ॥ देवों और छह पृथिवियोंमें बंधनेवाली प्रकृतियोंका निर्देश स० चं-तिन इकहत्तरिविर्षे देवचतुष्क घटाइ मनुष्यचतुष्क वज्रवृषभनाराच मिलाएँ बहत्तरि प्रकृतिनिकौं सिद्ध भए हैं बंधापसरण जिनके असे मिथ्यादृष्टि देव छह पृथ्वीनिके नारकी बाँधै हैं । इहाँ देवचतुष्कविर्षे देवगति, देवानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर वैक्रियिकअंगोपांग जानना । अर मनुष्यचतुष्कविर्षे मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी औदारिक औदारिक अंगोपांग जानने। __ विशेष-दूसरे दण्डकमें उक्त ७१ प्रकृतियोंमेंसे देवगतिचतुष्कको कम कर तथा मनुष्यगतिचतुष्क और वज्रर्षभनाराचसंहननको मिलाकर ७२ प्रकृतियाँ परिगणित की गई हैं। १. जी० चू० ४, सू० २ । जयध० पु० १२, पृ० २११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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