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________________ चौंतीस बंधापसरणोंका निर्देश ११ एकसौ सतरह प्रकृतिनिवि चौतीस स्थाननिकरि छियालीस प्रकृतिकी व्युच्छित्ति हो है। तहां आदिके छह स्थाननिविर्षे नव अर अठारहवाँ स्थाननिविर्षे एकेंद्रियादिक तीन अर उगणीसवाँ आदि बोचिके स्थाननिविर्षे वेंद्री तेंद्री चौंद्री ए तीन अर तेईसवाँ आदि बारह स्थाननिविर्षे इकतीस सैं छियालीसको व्युच्छित्ति हो है। अवशेष इकहत्तरि बांधिए है। बहुरि भवनत्रिक सौधर्म युगलविर्षे दूसरा तीसरा अठारहवाँ अर तेईसवाँ आदि दश अर अंतका चौंतीसवाँ ए चौदह स्थान ही संभवै हैं । तहां इकतीस प्रकृतिकी व्युच्छित्ति हो है। बंधयोग्य एकसौ तीनविर्षे बहत्तरि प्रकृतिनिका बंध अवशेष रहै है ॥ १६ ॥ विशेष-दर्शनमोहनीयकी उपशामना करनेवाले जीवके तीर्थंकर प्रकृतिकी सत्ता तो होती ही नहीं। सादि मिथ्यादृष्टिके कदाचित् आहारकद्विककी सत्ता सम्भव है, परन्तु आहारद्विककी उद्वेलना करनेके बाद ही उक्त जीव दर्शनमोहनीयके उपशमना करनेके योग्य होता है । कारण कि सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्वके उद्वेलना कालसे आहारकद्विकका उद्वेलना काल अल्प है। इसलिए भी दर्शनमोहनीयकी उपशमना करनेके सन्मुख हुए मिथ्यादृष्टि जीवके उक्त दो प्रकृतियोंकी सत्ता नहीं पाई जाती। अथ नरकगती देवगतौ च विशेषेण बंधापसरणपदसंभवं कथयति ते चेव चोदसपदा अट्ठारसमेण हीणया होति । रयणादिपुढविछक्के सणककुमारादिदसकप्पे ॥ १७ ॥ तानि चैव चतुर्दशपदानि अष्टादशेन होनानि भवंति। रत्नादिपृथ्वीषट्के सनत्कुमारादिदशकल्पे॥ १७॥ सं० टी०-तान्येव चतुर्दशपदानि अष्टादशेन हीनानि भवंति । रत्नप्रभादिपृथ्वीषट्के सनत्कुमारादिदशकल्पेषु नरकगतौ रत्नप्रभादितमःप्रभापर्यंते पृथ्वीषट्के प्रथमसम्यक्त्वाभिमुखमिथ्यादृष्टः प्रकृतिबंधापसरणपदानि पूर्वोक्तान्येव अष्टादशेन हीनानि त्रयोदश भवंति । तेषु तिर्यगायुरादयोऽष्टाविंशतिप्रकृतयो बन्धतो व्युच्छिन्नाः, तद्योग्यप्रकृतिशतमध्ये तदपनयने शेषाः द्वासप्ततिप्रकृतयो बध्यते । एवं देवगतौ सनत्कुमारादिसहस्रारपर्यंतेषु दशसु कल्पेष्वपि बंधापसरणपदानि बंधव्युच्छिन्नप्रकृतयो बध्यमानप्रकृतयश्च ज्ञातव्याः ।। १७ ।। रत्नप्रभा आदि छह पृथिवियोंमें और सनत्कुमार आदि दश कल्पोंमें बन्धापसरणोंका निर्देश स० चं०–रत्नप्रभा आदि छह नरक पृथ्वीनिविर्षे अर सनत्कुमारादि दश स्वर्गनिविर्षे पूर्वोक्त चौदह स्थान अठारहवाँ विना पाइए है । तिन तेरह स्थाननिकरि अठाईस प्रकृति व्युच्छित्ति हो हैं । तहाँ बंधयोग्य सौ प्रकृतिनिविर्षे बहत्तरिका बंध अवशेष रहै है ।। १७ ॥ अथानतादिषु प्रकृतिबंधापसरणस्थानानि कथयति ते तेरस विदिएण य तेवीसदिमेण चावि परिहीणा । आणदकप्पादुवरिमगेवेज्जतो ति ओसरणा ॥ १८ ॥ तानि त्रयोदश द्वितीयेन च त्रयोविंशतिकेन चापि परिहीनानि । आनतकल्पादयुपरिमप्रैवेयकांतमित्यपसरणाः ॥१८॥ सं० टी०-तानि त्रयोदश द्वितीयेन त्रयोविंशेन चापि परिहीनानि आनतकल्पाद्युपरिमप्रैवेयकांतं यावदपसरणानि । देवगतौ प्रथमसम्यक्त्वाभिमुखस्य मिथ्यादृष्टेरानतप्राणतादिषूपरिमप्रैवयकपर्यंतेषु विमानेषु वर्तमानस्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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