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________________ लब्धि सार हीनां त्रिसागरोपमहीनां इत्यादिसप्ताष्टशतलक्षसागरोपम-पृथक्त्वहीनामंतःकोटाकोटिस्थितिमंतर्मुहूर्त यावद्बध्नाति तदाएकं नारकायुःप्रकृतिबन्धापसरणस्थानं भवति, तदा नारकायुबंधव्युच्छित्तिर्भवतीत्यर्थः । पुनरपि पूर्वोक्तक्रमण सागरोपमशतपृथक्त्वहीनामंतःकोटीकोटिस्थिति यदा बध्नाति तदा तिर्यगायुबंधव्युच्छेदो भवति । एवमनेन सागरोपमशतपृथक्त्वहानिक्रमेण स्थितिबन्धे एकैकं प्रकृतिबन्धव्युच्छेदपदं भवति यावत् चतुस्त्रिगत्तमं प्रकृतिबंधव्युच्छेदपदं प्राप्नोति तावन्नेतव्यं,॥ १० ॥ अब प्रायोग्यलब्धिके समय होनेवाले प्रकृतिबन्धपसरणका कथन करते हैं स० चं-तिस अंतःकोटाकोटी सागरस्थितिबंधतै पल्यका संख्यातवां भागमात्र घटता स्थितिबंध अन्तर्मुहूर्त पर्यंत समानता लीएं करै । बहुरि तातै पल्यका संख्यातवाँ भागमात्र घटता स्थितिबंध अंतर्मुहूर्त पर्यंत करै। असैं क्रमसंख्यात स्थितिबंधापसरणनिकरि पृथक्त्व सौ सागर घटै पहला प्रकृतिबंधापसरणस्थान होइ । बहुरि तिस ही क्रम” तिसरौं भी पृथक्त्व सौ सागर घटैं दूसरा प्रकृतिबंधापसरणस्थान होइ । औसैं इस ही क्रम” इतना इतना स्थितिबंध घटै एक एक स्थान होइ । औसैं प्रकृितिबंधापसरणके चौतीस स्थान होइ। इहां पृथक्त्व नाम सात वा आठका है, तातें इहाँ पृथक्त्व सौ सागर कहनेतें सातसै वा आठसै सागर जानने ॥ १० ।। अथ चतुस्त्रिशत्प्रकृतिबन्धापसरणस्थानानि गाथापंचकेनाह आऊ पडि णिरयदुगे सुहुमतिये सुहुमदोणि पत्तेयं । बारदजुद दोणि पदे अपुण्णजुद वि-ति-चसण्णि-सण्णीसु ॥११।। आयुः प्रति निरयद्विकं सूक्ष्मत्रयं सूक्ष्मद्वयं प्रत्येकं । बादरयुतं द्वे पदे अपूर्णयुतं द्वित्रिचतुरसंज्ञिसंजिषु ॥११॥ सं० टी०-प्रथमं नारकायुषो व्युच्छित्तिपदं, द्वितीयं तिर्यगायुषः, तृतीयं मनुष्यायुषः, चतुर्थ देवायुषः, पंचमं नरकगतितदानुपूर्योः, षष्ठं सूक्ष्मापर्याप्तकसाधारणप्रकृतीनां संयुक्तानाम्, सप्तमं सूक्ष्मापर्याप्तकप्रत्येकप्रकृतीनां संयुक्तानाम्, अष्टमं बादरापर्याप्तकसाधारणानां संयुक्तानाम्, नवमं बादरापर्याप्तकप्रत्येकानां संयक्तानाम, दशमं द्वीद्रियजात्यपर्याप्तकनाम्नोः संयुक्तयोः, एकादशं त्रींद्रियजात्यपर्याप्तकनाम्नोः, द्वादशं चतुरिद्रियजात्यपर्याप्तयोः, योदशं असंज्ञिपंचेंद्रियजात्यप्तियोः, चतुर्दशं संज्ञिपंचेन्द्रियजात्यपर्याप्तयोः ।। ११ ॥ अब चौंतीस स्थाननिवि क्रमतें कैसी कैसी प्रकृतिका व्युच्छेद हो है सो कहिए है स० चं-पहला नरकायुका व्युच्छित्तिस्थान है। इहांतें लगाय उपशम सम्यक्त्व पर्यंत नरकायुका बंध न होइ । जैसे ही आगें जानना । दूसरा तिर्यंचायुका है। तीसरा मनुष्यायुका है। चौथा देवायुका है। इहाँ प्रथमोपशम सम्यक्त्वविर्षे आयुबंधका अभाव है, तातै सर्व आयुबंधकी व्युच्छित्ति कही है। बहुरि पांचवाँ नरकगति-नरकानुपूर्वीका है। छठ। संयोगरूप सूक्ष्म-अपर्याप्तसाधारणनिका है। इहां संयोगरूप कहनेकरि तीनोंका मिलाप लीएं तौ इहाँ ही पर्यंत बंध होइ । अर इन तीनोविष कोई प्रकृति बदल यथासम्भव इनि प्रकृतीनविष कोई प्रकृतिका बंध आगे भी होड़ असा संयोगरूप कहनेका अभिप्राय जानना। आगैं संयोगरूप कहनेका औसैं ही अर्थ समझना । बहरि सातवाँ संयोगरूप सूक्ष्म-अपर्याप्त-प्रत्येकका है । आठवाँ संयोगरूप बादर-अपर्याप्त-साधारणनिका है। नवमा संयोगरूप बादर-अपर्याप्त-प्रत्येकका है । दशवाँ संयोगरूप बेंद्रीजाति-अपर्याप्तका है। ग्यारहवां संयोगरूप तेंद्री-अपर्याप्तका है। बारहवाँ संयोगरूप चौंद्री-अपर्याप्तका है। तेरहवाँ संयोगरूप असंज्ञी पंचेंद्रिय-अपर्याप्तका है | चौदहवाँ संयोगरूप संज्ञी पंचेंद्रिय-पर्याप्तका है ॥ ११ ।। १. ध० पु० ६, पृ० १३५-१३९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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