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श्री आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती
विरचित
लब्धिसार
संस्कृत तथा हिन्दी टीकाद्वय सहित जयंत्यन्वहमहंतः सिद्धाः सूर्युपदेशकाः । साधवो भव्यलोकस्य शरणोत्तममंगलम् ॥१॥ श्रीनागार्यतनूजातशांतिनाथोपरोधतः । वृत्तिभव्यप्रबोधाय लब्धिसारस्य कथ्यते ॥२॥
जो भव्य जीवोंके लिए शरणरूप और सर्वोत्कृष्ट मंगलस्वरूप हैं वे अरहंत सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु जयवन्त हों ॥१॥
श्री नागार्यके पुत्र शान्तिनाथके अनुरोधवश मैं ( संस्कृत टीकाकार ) भव्य जीवोंको उत्कृष्ट सम्यग्ज्ञानको प्राप्तिके लिए श्री लब्धिसार ग्रन्थको वृत्ति लिखता हूँ॥२॥
श्रीमान्नेमिचंद्रसिद्धांतचक्रवर्ती सम्यक्त्वच डामणिप्रभृतिगुणनामांकितचामुंडरायप्रश्नानुरूपेण कषायप्राभूतस्य जयधवलाख्यद्वितीयसिद्धांतस्य पंचदशानां महाधिकाराणां मध्ये पश्चिमस्कंधाख्यस्य पंचदशस्यार्थं संगृह्य लब्धिसारनामधेयं शास्त्रं प्रारभमाणो भगवत्पंचपरमेष्ठिस्तवप्रणामपविका कर्तव्यप्रतिज्ञां विधत्ते
अब कर्तव्यका प्रारंभ करिए है । आगैं चामुंडराय नामा राजाके प्रश्नके वशतै कषायप्राभृत अर ताहीका द्वितीय नाम जयधवल ताके पंद्रह अधिकार तिनिविर्षे पश्चिम स्कंधनामा पंद्रहां अधिकार ताका अर्थकौं ग्रहण करि श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती लब्धिसार नामा ग्रंथ कीया, ताके सूत्रनिका संक्षेपमात्र अर्थ लिखिए है। तहां प्रथम लब्धिसार टीकाके अनुसारि केतेइक सूत्रनिका अर्थ लिखिए है । टीकाविर्षे विस्तारतें व्याख्यान है । इहां ग्रंथ बधनेके भयतें संकोचरूप व्याख्यान करिए है। तहां प्रथम ही मंगल करिए है
विशेष-श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने षट्खण्डागमके अन्तर्गत जीवस्थान खण्डके चूलिकानामक अर्थाधिकारकी ८ वीं चूलिका और कषायप्राभूतके स्वयं गुणधर आचार्य द्वारा स्थापित अन्तके ६ अर्थाधिकारोंका आलम्बन लेकर लब्धिसार और क्षपणासार महान् ग्रन्थकी रचना की है। कषायप्राभृतके अन्तमें पश्चिमस्कन्धनामक एक अनुयोगद्वार अवश्य है। किन्तु उसमें केवलिसमुद्धातके प्रथम समयसे लेकर सिद्धिगति प्राप्त होने तकके कार्यविशेषका मात्र निर्देश है। उसमें दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी उपशमना और क्षपणाका विधान नहीं है ।
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