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________________ पृष्ठ विषय पृष्ठ विषय यहाँ जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकके अश्वकर्णकरणके प्रथम समयमें उक्त स्पर्धकोंमेंसे प्रमाणका कथन ३४४ किनका उदय होता है इसका विचार ३९० यहाँ प्रथम समयमें बन्ध और सत्त्व के प्रमाण आगे पूर्वोक्तविधिसे स्पर्धक रचनाका विधान ३९३ का निर्देश ३४५ प्रकृतमें किस क्रमसे द्रव्य दिया जाता है और यहाँ आगे स्थितिबन्धापसरणके साथ स्थिति दिखाई देता है इसका निर्देश ३९४ बन्धके विषयमें खुलासा ३४५ प्रथम अनुभागकाण्डकका पतन होनेके बाद जहाँ पल्यका असंख्यातवाँ भाग स्थितिबन्ध जो कार्य होते हैं उनका निर्देश होता है वहाँ से असंख्यात समयप्रबद्धोंकी प्रकृतमें जो अल्पबहुत्व बना है उसका निर्देश ३९७ उदीरणा होने लगती है इस बातका निर्देश ३५३ अश्वकर्णकरणके अन्तिम समयमें जो स्थिति आगे क्रमसे आठ कषायों और सोलह प्रकृतियोंका बन्ध और सत्त्व रहता है उसका संक्रामक होता है इस बातका खुलासा ३५४ निर्देश आगे जिन प्रकृतियोंका देशघातीकरण होता ३९८ अश्वकर्णकरणके काल आदि दूसरे कार्योंका है अदिका निर्देश ३५५ अन्तरकरण करनेके प्रथम समयमें सात निर्देश ३९९ करण होते हैं आदिका निर्देश कृष्टिकरणविधिका निर्देश ४०० नपुंसकवेदादिका किस विधिसे संक्रामक बादारकृष्टि और सूक्ष्म कृष्टिको कितना होता है इस बातका निर्देश ३५९ द्रव्य मिलता है इसके साथ अन्य बंध उदय संक्रम और गुणश्रेणिमे बातोंका निर्देश तारतम्यका विचार किस कषायके उदयसे चढ़े हुए जीवके कितनी बन्ध, उदय, संक्रम और गुणश्रेणिमें कृष्टियाँ होती हैं इस बातका निर्देश ४०३ स्वस्थान अपेक्षा विचार एक-एक संग्रह कृष्टिके भीतर अन्तर ३६१ कृष्टियाँ अनन्त होती हैं ४०४ नपुंसकवेदके संक्रामक होनेके बाद स्त्रीवेदके संक्रमणके समय जो कार्य होते हैं उनका कृष्टियोंके मध्य अन्तरका विचार ४०५ निर्देश ३६२ इन कृष्टियोंमें द्रव्यके वटवारेका विधान ४०८ सात नोकषायोंके संक्रमणके समय होनेवाले पावकृष्टियों सम्बन्धी विधान कार्यविशेष ३६३ सब कृष्टियोंके भेदोंके साथ उनकी होनेवाली क्रोधसंज्वलनकी अपेक्षा उक्त बातोंका विचार ३६९ उष्ट्रकूट रचनाका निर्देश संज्वलनचतुष्कके अनुभागकी अश्वकरणक्रिया प्रकृतमें स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्वका निर्देश ४१६ का विधान व अन्य कार्य ३७० कृष्टि और अनुभागके लक्षणका निर्देश ४१७ अपूर्व स्पर्धककरणविधान ३७६ कृष्टिकरणके कालमें स्पर्धकोंका ही वेदक कितने द्रव्यसे अपूर्व स्पर्धक रचना होती है __ होता है इसका निर्देश ४१७ इसका विधान ३७९ बादमें कृष्टिवेदक कालमें स्थिति बन्ध सत्त्व लोभादिकके स्पर्धकोंकी वर्गणा सम्बन्धी आदिका निर्देश ४१७ विशेष विचार ३८७ कृष्टिकारक और वेदकके क्रमका निर्देश ४१९ प्रकृतमें उपयोगी करणसूत्रका निर्देश ३८८ कृष्टिवेदनके प्रथम समय में होनेवाले कार्यों क्रोधादिकका काण्डकसम्बन्धी विशेष विचार ३८८ का निर्देश ४०९ ४१९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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