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________________ स्वस्थानकेवलीके क्रियाविशेषका निरूपण ४९५ स० चं०-दंड समुद्घात करनेका कालके अंतर्मुहूर्त काल आधा कहिए पहलै आवर्जित नामा करण हो है सो जिनेंद्रदेवकै जो समुद्घात क्रियाकौं सन्मुखपना सोई आवर्जितकरण कहिए ॥६२१॥ विशेष-जब केवली जिनकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयु अवशिष्ट रहती है तब केवली भगवान् अघाति कर्मोकी स्थितिको समान करनेके लिए केवलि समुद्घातके पहले आवजितकरण नामकी दूसरी क्रिया करते हैं । केवली जिनका केवलि समुद्घातके संमुख होना इसका नाम आवजितकरण है। उसे वे अन्तर्मुहूर्तकालतक करते हैं, क्योंकि यह करण किए बिना केवलि समुद्घातके संमुख होना सम्भव नहीं है। उसी समय केवली जिन उदयादि अवस्थित गुणश्रेणिकी रचना करते हैं । इसे करते हुए उदयमें स्तोक प्रदेशपुंजका निक्षेप करते हैं। इसके आगे गुणश्रेणिशीर्षके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजका निक्षेप करते हैं । यह गुणश्रेणिशीर्ष तदनन्तर पिछले समयमें विद्यमान सयोगि केवलीके द्वारा किये गये गुणश्रेणि आयामसे संख्यातगुणे स्थान नीचे जाकर स्थित रहता है, परन्तु प्रदेशपुंजकी अपेक्षा उससे असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजसे युक्त होता है । गुणश्रेणिके ऊपर अनन्तर समयमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देते हैं। इससे ऊपर सर्वत्र विशेषहीन विशेषहीन प्रदेशपुंजका निक्षेप करते हैं । इस प्रकार आवर्जितकरणके भीतर सर्वत्र गुणश्रेणिनिक्षेप जानना चाहिये । यहाँसे लेकर सयोगी केवलीके द्विचरम कांडकको अन्तिम फालितक अवस्थितरूपसे इस गुणश्रेणिनिक्षेपके आयामकी प्रवृत्ति जाननी चाहिये । और यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि सूत्रके अविरुद्ध परम गुरु सम्प्रदायके बलसे इसका निश्चय होता है । सट्ठाणे आवज्जिदकरणे वि य णत्थि ठिदिरसाण हदी । उदयादि अवट्ठिदया गुणसेढी तस्स दव्वं च ॥६२२।। स्वस्थाने आजितकरणेऽपि च नास्ति स्थितिरसयोः, हतिः । उदयादिअवस्थितका गुणश्रेणिः, तस्य द्रव्यं च ॥६२२॥ स० चं०-आवजितकरण करने पहलै जो स्वस्थान तीहिंविर्ष अर आवर्जितकरणविषै भी सयोगकेवलीकै कांडकादि विधानकरि स्थिति अनुभागका घात नाहीं है। बहुरि उदयादि अवस्थितरूप गुणश्रेणिआयाम है अर तिस गुणश्रेणिका द्रव्य भी अवस्थित है। तहां विशेष इतना जो स्वस्थान केवलीका गुणश्रेणिआयामतें आवर्जितकरणयुक्त केवलीका गुणश्रेणि आयाम संख्यातगुणा घाटि है। बहुरि स्वस्थान केवलीकरि अपकर्षण कीया द्रव्यतै आवर्जितकरणयुक्त केवलीकरि अपकर्षण कीया द्रव्य असंख्यातगुणा है, जातै गुणश्रेणिनिर्जराके ग्यारह स्थान कहे हैं तहाँ ऐसा ही क्रम कह्या है। यद्यपि केवलीकै परिणामनिकी समानता है, तथापि आयुका अंतर्मुहूर्तमात्र अवशेष रहनेका निमित्त पाइ विशेष होनेते स्वस्थान जिनते समुद्घातकौं सन्मुख जिनकै गुणश्रेणिआयाम वा अपकर्षण कीया द्रव्यकी समानता नाही कही है। बहुरि स्वस्थान जिनके प्रथमादि अंत समयपर्यन्त गुणश्रेणिआयाम अर अपकर्षण कीया द्रव्य समान है, तातै अवस्थित जानना । बहुरि आयुवर्जित करणका प्रथम समयतै लगाय सयोगीकै द्विचरम स्थितिकांडककी अंतफालिका पतन जिस समय होगा तहां पर्यन्त गुणश्रेणिआयाम अर अपकर्षण कीया द्रव्य समान है तातै अवस्थित जानना ॥६२२॥
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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