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________________ ४९४ क्षपणासार . हितकों करै हैं । जातै सर्व जीवनिका उपकाररूप परिणामनितें ऐसा कर्म पूर्व बंध्या है जाके उदयतें सर्व जीवनिका स्वयमेव उपकार हो है अर भव्य जीवनिका भला होना है, तातें ऐसा निमित्त बना है। बहुरि भगवान विहार करें तब आकाशविर्षे दोयसै पचीस कमलनीके ऊपरि स्वयमेव गमन कर हैं। सो या प्रकार उत्कृष्ट तौं किंचित् ऊन कोडि पूर्व अर जघन्य पृथक्त्व वर्षप्रमाण तीर्थंकर केवलीकी स्थिति सयोग गुणस्थानवि जाननी । सामान्य केवलीनिकै अतिशयादिक यथासंभव जानना अर जघन्य स्थिति अंतमुहूर्त जाननी। तहाँ सयोगीका प्रथम समयतें लगाय उदयादि अवस्थित गुणश्रेणिनिर्जरा पाइए है। तहाँ प्रथम समयवि वेदनीय नाम गोत्रका द्रव्यकौं अपकर्षण भागहारका भाग देइ तहाँ एक भागमात्र द्रव्य ग्रहि पूर्वोक्त प्रकार गुणश्रेणिविर्षे देने योग्य द्रव्यकौं उदयरूप प्रथम निषेकविषै तौ स्तोक अर द्वितीयादि गुणश्रेणिशीर्षपर्यंत निषेकनिविर्षे असंख्यातगुणा क्रम लीएं निक्षेपण करिए है । बहुरि उपरितन स्थितिविर्षे देने योग्य द्रव्यको प्रथम निषेकविर्षे गणश्रेणिशीर्षविर्षे दीया द्रव्यते असंख्यातगणा अर द्वितीयादि अतिस्थापनावली यावत् न प्राप्त होइ तावत् निषेकनिवि विशेष घटता क्रम लीएं निक्षेपण करिए है । इहां क्षीणकषाय करि अपकर्षण कीया द्रव्यतै सयोगकेवलीकरि अपकर्षण कीया द्रव्य असंख्यातगुणा जानना। बहुरि ताके गुणश्रेणिआयामतें याका गुणश्रेणिआयाम संख्यातगुणा घटता जानना । बहुरि सयोगकेवलीका द्वितीयादि समयनिविर्षे भी ऐसा ही विधान जानना। परिणाम अवस्थित है, तातै अपकर्षण कीया द्रव्यकी अर गुणश्रेणीआयामकी समानता जाननी। इतना ही विशेष गुणश्रेणिआयाम अवस्थित है, तातै ज्यू-ज्यूं गुणश्रेणिआयामका एक-एक समय व्यतीत हो है त्यूं त्यूं उपरितन स्थितिका एक-एक समय गुणश्रेणिविर्षे मिल है। या प्रकार सयोगीका काल बहुत व्यतीत होते समुद्धातक्रिया जिस कालविर्षे हो है सो कहिए है अंतोमुहुत्तमाऊ परिसेसे केवली समुग्धादं । दंड कवाटं पदरं लोगस्स य पूरणं कुणई॥६२०॥ अंतर्मुहुर्तमायुषि परिशेषे केवली समुद्घातं । डं कपाटं प्रतरं लोकस्य च पूरणं करोति ॥६२०॥ स० चं०-अपना आयु अन्तर्मुहूर्तमात्र अवशेष रहैं केवली समुद्धात क्रिया करै है । तहाँ दंड कपाट प्रतर लोकपूरणरूप समुद्घात क्रियाकौं करें हैं ।।६२०।। हेट्ठा दंडस्संतोमहुत्तमावज्जिदं हवे करणं । । तं च समुग्धादस्स य अहिमुहभावो जिणिंदस्स ॥६२१।। अघस्तनं दंडस्यांतर्मुहूर्तमाजितं भवेत् करणं । तच्च समुद्घातस्य च अभिमुखभावो जिनेन्द्रस्य ॥६२१॥ १. स केवलिसमुद्धातो दंड-कवाट-प्रतर-लोकपूरणभेदेन चतुरवस्थात्मकः प्रत्येतव्यः । जयध० ता० मु०, पृ० २२७८ । २. अंतोमुहुत्ते आउगे सेसे तदो आवज्जिदकरणे कदे तदो केवलिसमुग्धादं करेदि । क० चु०, पृ० ९००।
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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