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________________ ४९६ क्षपणासार अब आवर्जितकरणविषै गुणश्रेणिआयाम कितना है ? सो कहिए है जोगिस्स सेसकाले गयजोगी तस्स संखभागो य । जावदियं तावदिया आवज्जिदकरणगुणसेढी' ॥६२३॥ योगिनः शेषकाले गतयोगी तस्य संख्यभागश्च । यावत् तावत्कं आवर्जितकरणगुणश्रेणिः ॥६२३॥ स० चं०-आवर्जितकरण करनेके पहले समय जो सयोगीका अवशेष काल रह्या अर अयोगीका सर्वकाल अर अयोगीके कालका संख्यातवां भाग इनकौं मिलाएं जितना होइ तितना आवजितकरण कालका प्रथम समयतें लगाय द्विचरम कांडकको अंतफालिका पतन समयपर्यंत समयनिविषै अवस्थित गुणश्रेणिआयाम जानना। तहाँ अपकर्षण कीया द्रव्य देनेका विधान जैसैं स्वस्थान जिनविषै कह्या तैसैं जानना । या प्रकार अन्तर्मुहूर्तमात्र आवजितकरण कालविषै क्रियाविशेष कहे, ताके अनंतरि समुद्घातक्रिया हो है । सो अघाति कर्मनिकी स्थिति समान करनेके अर्थि जीवके प्रदेशनिका समुद्गगमन फलना ताका नाम समुद्घात है। सो दंड कपाट प्रतर लोकपूरणभेदत च्यारि प्रकार है । सो समुद्घात करनेवाले जीव पूर्वकौं सन्मुख वा उत्तरकौं सन्मुख हो हैं । बहुरि पद्मासन वा कायोत्सर्ग आसनयुक्त हो हैं। सो प्रथम समयविषै दंड समुद्घात करै हैं। तहां उत्कृष्ट अवगाहयुक्त केवलीका शरीर एक सौ आठ प्रमाणांगुल प्रमाण ऊँचो होइ, ताके नवमे भाग चौडाई होइ । सो बारह अंगुल चौडाईकी सूक्ष्म परिधि सैंतीस अंगुल अर एक अंगुलका एकसौ तेरह भागमें पिच्याणवै भागमात्र हो है। सो यहु तो कायोत्सर्ग स्थित केवलीके परिधिका प्रमाण जानना। बहरि पद्मासन स्थितिके चौडाईका प्रमाण तातै तिगुणा छत्तीस अंगल है। ताके सक्ष्म परिधिका प्रमाण एकसौ तेरह अंगुल अर एक अंगुलका एकसौ तेरह भाग सत्ताईस भागमात्र हो है । ऐसे परिधिरूप होइ किंचिदून चौदह राजू ऊँचे प्रदेश हो हैं । इहाँ नीचले ऊपरले वातवलयनिविर्षे जीवके प्रदेश न फेले हैं, तातै तिनके घटावनेके अर्थि किंचिदून कह्या है। ऐसैं दंडके आकारि प्रदेश फैलनेतै दंड समुद्घात कह्या । १. केवलिसमुग्धादस्स अहिमहीभावो आवज्जिदकरणमिदि भण्णदे। तमंतोमुत्तमणुपालेदि । जयध० ता० मु० २२७७ । ताधेव णामा-गोद-वेदणीयाणं पदेसपिंडमोकड्डियूण उदए पदेसग्गं थोवं देदि, से काले असंखेज्जगुणं । एवं असंखेज्जगुणाए सेढीए णिक्खिवमाणो गच्छइ जाव सेससजोगिअद्धादो अजोगिअद्धादो च विसेसाहियभावेण समवठ्ठिदगुणसेढिसीसयं त्ति । जयध० ता० मु०, पृ० २२७७-२२७८ । २. अंतोमुहुत्ताउगे सेसे केवलीसमुग्धादं करेमाणो पुव्वाहिमुहो उत्तराहिमुहो वा होदूण काउस्सग्गेण वा करेदि पलियंकासणेण वा । तत्थ काउस्सग्गेण दंडसमुग्धादं कुणमाणस्स मूलसरीरपरिहाणेण देसूणचोद्दसरज्जुआयामेण दंडायारेण जीवपदेसाणं विसप्पणं दंडसमुग्धादो णाम । एत्य देसूणपमाणं हेट्ठा उवरि च लोयपेरंतवादवलयरुद्धखेत्तमेदं होदि त्ति दट्ठवं । सहावदो चेव तदवत्थाए वादवलयभंतरे केवलिजीवपदेसाणं पवेसाभावादो । एवं चेव पलियंकासणेण समुदहस्स वि दंडसमुग्धादो वत्तव्वो। णवरि मूलसरीरपरिट्ठयादो दंडसमुग्धादपरिडिओ तत्थ तिगुणो होदि । कारणमेस्थ सुगमं । एवंविहो अवस्थाविसंसो दंडसमुग्धादो त्ति भण्णदे । जयध० ता० मु० २२७८-२२७९ ।
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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