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________________ श्रेणिआरोहण विधिप्ररूपणा ४८७ क्रोधसहित श्रेणी चढ्या जीव जिस कालविषै च्यारों कषायनिका अश्वकर्णकरण अर अपूर्व स्पर्धक विधानकौं करे है तिस कालविषै मान सहित श्रेणि चढ्या जीव पूर्व स्पर्धकरूप जो क्रोध था ताकौं मान कषायरूप परिनमाय क्षय करै है । तातें क्रोधसहित श्र ेणी चढयाके बारह संग्रह कृष्टि हो है । मानसहित श्र ेणी चढया तीन कषायनिकी नव ही संग्रहकृष्टि हो है । बहुरि क्रोधसहित श्रेणी चढया जिस कालविषै बादर कृष्टि करै है तिस कालविषै मानसहित श्र ेणी चढ्या जीव तीन कषायनिकी अश्वकर्णसहित अपूर्व स्पर्धक क्रिया करे है । बहुरि क्रोध सहित श्रेणी चढ्या जीव जिस कालविषै क्रोधकी तीन संग्रह कृष्टिकों वेद क्षपावै है तिस कालविषै मानसहित श्र ेणी चढ्या जीव मानादि तीन कषायनिकी नव बादर संग्रह कृष्टि करे है । बहुरि ताके ऊपर मानकषायका वेदक काल आदि सर्व प्ररूपणा क्रोधसहित श्रेणी चढयाकै अर मानसहित श्र ेणी चढ्या समान है । अव मायासहित श्रेणी चढ्या जीवका व्याख्यान करिए है - क्रोधसहित श्रेणी चढया जिस कालविषै अश्वकर्ण क्रिया करे है तिस कालविषै यह क्रोधक मानरूप परिनमाइ क्षय करे है । बहुरि क्रोधसहित श्रेणी चढ्या जिस कालविषै कृष्टि करे है तिस कालविषै यह मानको मायारूप परनमाइ क्षय करे है । बहुरि क्रोधसहित श्र ेणी चढ्या जिस कालविषै क्रोधकी तीन संग्रह कृष्टिकौं वेदि क्षपावैं है तिस कालविषै यह माया अर लोभकी छह बादर संग्रह कृष्टि करे है । बहुरि ताके ऊपरि मायाकी संग्रह कृष्टिका वेदक काल आदि सर्व प्ररूपणा क्रोधसहित श्र ेणी चढ्या अर या समान है। अब लोभसहित श्री चढ्या जीवका व्याख्यान कहिए है क्रोधसहित श्रेणी चढ्या जिस कालविषै अश्वकर्ण करे हैं तिस कालविषै यहु पूर्व स्पर्धक - रूप क्रोधकों मानरूप परिनमाइ क्षय करें है । बहुरि क्रोधसहित चढ्या जीव जिस कालविषै कृष्टि करें है तिस कालविषै यहु पूर्व स्पर्धकरूप मानकौं मायारूप परनमाइ क्षय करें है । बहुरि क्रोध सहित चढ़या जिस कालविषै क्रोधकी तीन संग्रह कृष्टिनिको वेदि क्षय करें है तिस कालविषै यह पूर्व स्पर्धकरूप मायाको लोभरूप परिनमाइ क्षय करे है । बहुरि क्रोधसहित श्रेणी चढ्या जीव जिस काल मानकी तीन संग्रह कृष्टिनिकों वेदि क्षय करे है तिस कालविषै यहु लोभकी तीन बादर संग्रह कृष्टि करे है । तातें उपरि लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टि वेदक काल आदि सर्व प्ररूपणा क्रोधसहित श्र ेणी चढ्या अर याकैं समान है || ६०५ || विशेष - चूर्णिसूत्र में 'क्रोध कषायके उदयसे चढ़ा हुआ जीव जिस कालमें मानसंज्वलनका क्षय करता है उस कालमें लोभसंज्वलन के उदयसे चढ़ा हुआ जीव अश्वकर्णकरण क्रिया करता । इस पर टीका करते हुए जयधवलाकार कहते हैं कि यद्यपि अकेले लोभसंज्वलनका अश्वकर्णकरणरूपसे विनाश सम्भव नहीं है तो भी अनुभागविशेषके घातको तथा अपूर्व स्पर्धकोंके विधानको देखते हुए यहाँ भी अश्वकर्णकरण काल सम्भव है; इसलिये यह कथन विरुद्ध नहीं है । तथा उक्त जीव कृष्टिकरण कालके भीतर पूर्व और अपूर्वं स्पर्धकोंका अपवर्तन करके तीन बादर संग्रह कृष्टियोंको रचता है ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि यहाँ पर शेष कषाय सम्भव नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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