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________________ ४८६ क्षपणासार कोहस्स य पढमठिदीजुत्ता कोहादिएक्कदोतीहि । खवणद्धाहि कमसो माणतियाणं तु पढमठिदी ॥६०४॥ क्रोधस्य च प्रथमस्थितियुक्ता क्रोधादिएकद्वित्रयाणाम् । क्षपणाद्धा हि क्रमशो मानत्रयाणां तु प्रथमस्थितिः ॥६०४॥ स० चं०-पुरुषवेदयुक्त मानादि कषायसहित श्रेणी चढ़या जीवकैः अधःकरण” लगाय अंतरकरणकी समाप्ति पर्यंत तौ सर्व प्ररूपणा पुरुषवेद क्रोधसहित श्रेणी चढ़या जीवकै समान जाननी । ताके अंनतरि क्रोधकी प्रथम स्थितिसहित क्रोधादिक एक दोय तीन कषायनिक जो क्षपणा काल सो क्रम” मानादिक तीन कषायनिकी प्रथम स्थिति हो है सोई कहिए है __ मानसहित श्रेणी चढ़या जीव है सोई अंतरकरणकी समाप्तिके अनन्तर क्रोधकी प्रथम स्थिति न स्थापै है। मानकी प्रथम स्थिति अन्तमुहूतमात्र स्थाप है। सो क्रोधसहित श्रेणी चढ़याकै नपुसकवेदका क्षपणा कालत लगाय कृष्टिकारककालपर्यंत तो क्रोधकी प्रथम स्थिति अर क्रोधकी तीनों संग्रह कृष्टिका वेदककालमात्र क्रोधका क्षपणा काल इनि दोऊनिकौं मिलाएँ जेता प्रमाण होइ तितना मानसहित श्रेणी चढ्या मानकी प्रथम स्थितिका प्रमाण जानना। बहुरि मायासहित श्रेणी चढ्या जीव है, सो अन्तरकरणका समाप्तिके अनन्तरि क्रोध अर मानकी प्रथम स्थिति नाहीं स्थापै है । मायाकी प्रथम स्थिति अन्तमुहूर्तमात्र स्थापै है । सो क्रोधसहित श्रेणी चढ्या जीवकैं जो पूर्वोक्त क्रोधको प्रथम स्थिति अर क्रोध क्षपणाकाल अर मानकी तीनौं संग्रह कृष्टिका वेदक कालमात्र मान क्षपणा काल इन तीनौंकौं मिलाएँ जो होइ तेता माया सहित श्रेणी चढ्या जीवकै मायाकी प्रथम स्थितिका प्रमाण हो है। बहुरि लोभ सहित श्रेणी चढ्या जीव है, सो अन्तरकरणकी समाप्तिके अनन्तरि क्रोध अर मान अर मायाकी प्रथम स्थिति नाहीं स्थापै है, लोभकी प्रथम स्थिति स्थापै है। सो क्रोधसहित श्रेणी चढयाकै जो पूर्वोक्त क्रोधकी प्रथम स्थिति अर क्रोध क्षपणा काल अर मान क्षपणाकाल अर मायाका वेदक कालमात्र जो मायाका क्षपणा काल इन च्यारोकौं मिलाएँ जो होइ तितना लोभ सहित श्रेणी चढया जीवकै लोभकी प्रथम स्थितिका प्रमाण जानना ॥६०४॥ माणतियाणुदयमहो कोहादिगिदुतिय खवियपणिधम्हि । हयकण्णकिट्टिकरणं किच्चा लोहं विणासेदि ॥६०५॥ मानत्रयाणामुदयमथ क्रोधाद्येकद्वित्रयं क्षपकप्रणिधौ । हयकर्णकृष्टिकरणं कृत्वा लोभं विनाशयति ॥६०५।। स० चं०-मानादिक तीन कषायनिका उदयसहित श्रेणी चढ्या जीव है, सो क्रमतें क्रोधादिक एक दोय तीन कषायनिका क्षपणा कालके निकटि अश्वकर्ण सहित कृष्टिकरणकौं करि लोभकौं बिनाशे है। सोई कहिए है-तहां प्रथम मान सहित श्रेणी चढयाका व्याख्यान करिए है १. क० चु०, पृ० ८९०-८९२ । २. क० चु०, दृ० ८९०-८९२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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