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________________ ४७८ क्षपणासार अंतरपढ मठिदि ति य असंखगुणिदक्कमेण दिज्जदि हु । हीणं तु मोहविदियट्ठिदिखंडयदो दुघादो त्ति ॥५८९।। अन्तरप्रथमस्थितिरिति च असंख्यगुणितकमेण दीयते हि । होनं तु मोहद्वितीयस्थितिकांडकतो द्विघात इति ॥५८९॥ स० चं०-मोहकी द्वितीय स्थितिकांडकघाततै लगाय विचरम कांडकघातपर्यंत कांडककरि गृहीत स्थितितै नीचे अर उदयावलीत उपरि जे निषेक तिनिका द्रव्यकौं अपकर्षण भागहारका भाग देइ तहाँ एकभागमात्र द्रव्य ग्रहि ताकौं पल्यका असंख्यातवां भागका भाग देइ तहां एक भागकौं पूर्वोक्त प्रकार गुणश्रेणिआयामविर्षे प्रथम उदय निषेकविणे ती स्तोक अर द्वितीयादि निषेकनिविौं गुणश्रेणिशीर्षपर्यंत असंख्यातगुणा क्रम लीएं दीजिए है। बहुरि अवशेष बहुभागमात्र द्रव्यकौं गुणश्रेणितें ऊपरिकी अंतर्मुहर्तमात्र स्थितिमात्र जो गच्छ ताका भाग देइ तहां एक एक घाटि गच्छका आधा प्रमाणमात्र विशेष मिलाए जो होड तितना गणश्रेणिशीर्षके ऊपरि जो निषेक तीहिविष दीजिए है। सो यह गणश्रेणिशीर्णविर्ष दीया द्रव्यते असंख्यातग है। ऐसे अंतरका प्रथम निणेकपर्यंत तो असंख्यातगुणा क्रमकरि द्रव्य दीजिए है । बहुरि ताके ऊपरि एक एक विशेष घटता क्रमलीए द्रव्य दीजिए है। सो यावत् अतिस्थापनावली प्राप्त होइ तावत् ऐसा जानना। यहाँ प्रथम स्थितिकांडककालका अंत समयविष ही अन्तर है सो पूरण भया तातै अन्तरायामविष जुदा द्रव्य देनेका विधान कया । बहुरि सर्वस्थिति कांडकनिविष अंत फालिपर्यंत जो अपकृष्ट द्रव्य है सो तौ सकल द्रव्यके असंख्यातवै भागमात्र जानना। बहुरि अन्त फालिका पतन समयविष कांडकस्थितितै आयाम जो फालिद्रव्य है सो सर्व द्रव्यके संख्यातवै भागमात्र जानना ॥५८९।। अंतरपढमठिदि त्ति य असंखगुणिदक्कमेण दिस्सदि हु । हीणं तु मोहविदियट्ठिदिखंडयदो दुघादो ति ॥५९०।। अंतरप्रथमस्थितिरिति च असंख्यगुणितकमेण दृश्यते हि । हीनं तु मोहद्वितीयस्थितिकांडकतो द्विघातांतम् ।।५९०।। स० चं०-मोहका द्वितीय स्थितिकांडकघाततै लगाय द्विचरम कांडकघातपर्यंत दृश्यमान द्रव्य गुणश्रेणिका प्रथम निष कविौं स्तोक है, तातै गुणश्रेणिशीर्षके ऊपरि जो अंतरायामका प्रथम निषेक तहांपर्यन्त असंख्यातगुणा क्रम लीएं है। ताके ऊपरि अंत निषेकपर्यंत विशेष घटता क्रम लीएं दृश्यमान द्रव्य है, जात प्रथम कांडककी अन्त फालिका पतन समयविष गुणश्रेणितै उपरि सर्व स्थितिका एक गोपुच्छ हो है ।।५९०।। १. विदियादो द्विदिखंडयादो ओकड्डियूण पदेसग्गमदये दिज्जदि तं थोवं । तदो दिज्जदि असंखेज्जसेढोए ताव जाव गुणसेढीसीसयादो उवरिमाणंतरा एक्का दिदि त्ति । तत्तो असंखेज्जगणं । तत्तो विसेसहीणं । एस कमो ताव जाव सुहमसांपराइस्स पढमट्टिदिखंडयं चरिमसमयअणिल्लेविदं ति। क० च० १०८७०-८७१ । २. पढमे द्विदिखंडए णिल्लेविदे उदये पदेसगं दिस्सदि थोवं। विदियाए ट्रिदीए असंखेज्जगणं । पृ० ८७१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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