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________________ गुणश्रेणि आदिमें द्रव्यका बटवारा ४७७ होकर पतित होनेवाला द्रव्य द्वितीय स्थितिके समस्त द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है, क्योंकि वह अपकर्षण भागहारसे भाजित एक भागप्रमाण ही है। इसलिए गुणश्रेणिको छोड़कर उपरिम अन्तर स्थितियोंमें निक्षिप्त हुआ प्रदेशपुज एक गोपुच्छस्वरूप होकर वहाँ पाया जाता है । तथा द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकसे लेकर उपरिम सर्व स्थितियोंमें निक्षिप्त प्रदेशपुज एक गोपुच्छारूपसे अन्तर स्थितिमें निक्षिप्त प्रदेशपुजसे असंख्यातगुणा प्राप्त होता है, क्योंकि जब तक द्विचरम फालिका पतन होता है तब तक प्रत्येक समयमें अपकर्षित होकर अन्तर स्थितियोंमें निक्षिप्त होनेवाला प्रदेशपुज द्वितीय स्थितिके समस्त प्रदेशपुजके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है। होता हआ भी तत्काल अपकर्षित होनेवाले समस्त द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण या संख्यातवें भागप्रमाण ही है। इसलिए अन्तर स्थितियों में और द्वितीय स्थितिमें भिन्न गोपुच्छाएं हो जाती हैं। किन्तु प्रथम स्थितिकांडकको अन्तिम फालिके पतित होनेपर दोनोंकी एक गोपुच्छाश्रेणी हो जाती है. इसलिए प्रथम स्थितिकांडककी अन्तिम फालिके द्रव्यका संख्यातवाँ भागमात्र प्रदेशपिंड अन्तरस्थितियोंमें उप समय पतित होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । पनः उस चरिम फालिके प्रदेश पिंडका असंख्यात बहुभागप्रमाण द्रव्य प्रथम स्थितिकाण्डकसे न्यून तथा प्रथम स्थितिकांडकसे संख्यातगुणी ऐसी द्वितीय स्थितिकी अवयव स्थितियोंमें पतित होता है जो उस समय अन्तिम फालिके एक-एक स्थितिके प्रदेशपुजका संख्यातवें भागरूप प्रदेशपुज एक-एक स्थितिविशेषमें पतित होता है । परन्तु अन्तर स्थितियोंमेंसे प्रत्येकमें संख्यातगुणा प्रदेशपुज पतित होता है, अन्यथा दोनोंकी एक गोपुच्छा नहीं बन सकती। इसलिए अन्तरकी अन्तिम स्थितिमें निक्षिप्त हुए प्रदेश जसे द्वितीय स्थितिकी आदि स्थितिमें निक्षिप्त होनेवाला प्रदेशपुज संख्यातगुणा हो जाता है। अथवा अन्तर की अन्तिम स्थितिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुजसे द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकमें निक्षिप्त होनेवाला प्रदेशपुज इस कारण संख्यातगुणाहीन है, क्योंकि अन्तर स्थितियोंके प्रमाणसे प्रथम स्थितिकांडकके प्रमाणमें भाग देनेपर जो संख्यात अंक प्राप्त होते हैं उन्हें विरलित कर, विरलित अङ्कों पर प्रथम स्थितिकाण्डकके प्रमाणको समान खण्ड कर देनेपर वहाँ एक-एक अंकके प्रति अन्तरायामका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः यहाँ पर एक अंकके प्रति प्राप्त प्रमाणको ग्रहण कर तत्कालीन गुणश्रेणिशीर्षसे उपरिम अन्तर स्थितियों के ऊपर स्थापित करने पर अन्तर स्थितिसम्बन्धी प्रदेशपं ज और द्वितीय स्थितिसम्बन्धी प्रदेशपज दोनों ही स्तोकरूपसे एक पुच्छरूप हो जाते हैं। पुनः वहाँ द्वितीय अंकके प्रति प्राप्त एक खंडको ग्रहण कर संख्यात फालियाँ करनी चाहिये । वे कितनी हैं ऐसी जिज्ञासा होनेपर कहते हैं कि अन्तरस्थितिके प्रमाणसे, गणश्रीणिको छोड़कर शेष समस्त स्थितियोंके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उतनी फालियाँ करनी चाहिए। ऐसा करके उनमेंसे एक फालिको ग्रहण कर अन्तर स्थितियोंके ऊपर पहले स्थापित हुए खण्डके पास स्थापित कर पुनः शेष फालियोंको क्रमसे द्वितीय स्थिति में स्थापित करना चाहिये। इसी प्रकार शेष अंकोंके प्रति व्याप्त खण्डोंको भी आगमानुसार ग्रहण करना चाहिये। ऐसा करके देखने पर अन्तरसम्बन्धी अन्तिम स्थितिमें निक्षिप्त हुए द्रव्यसे द्वितीय स्थितिकी आदि स्थितिमें निक्षिप्त हुआ प्रदेशपुज संख्यातगुणा हीन होता है ऐसा निश्चय करना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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