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________________ सूक्ष्मसाम्परायमें विशेष प्ररूपणा ४७१ ताणं पुण ठिदिसंतं कमेण अंतोमुहुत्तयं होइ । वस्साणं संखेज्जसहस्साणि असंखवस्साणि ॥५८१॥ तेषां पुनः स्थितिसत्त्वं क्रमेणांतर्मुहर्तकं भवति । वर्षाणां संख्येयसहस्राणि असंख्यवर्षाणि ॥५८१॥ स० चं०-तहां तिनिका स्थितिसत्त्व क्रमकरि लोभका अंतमुहूर्त, तीन घातियानिका यथायोग्य संख्यात हजार वर्षमात्र, तीन अघातियानिका यथायोग्य असंख्यात वर्षमात्र है ॥५८१॥ से काले सुहुमगुणं पडिवज्जदि सुहुमकिट्टिठिदिखंडं । आणायदि तद्दव्वं उक्कट्टिय कुणदि गुणसेटिं२ ॥५८२।। स्वे काले सूक्ष्मगुणं प्रतिपद्यते सूक्ष्मकृष्टिस्थितिखंडं । आनयति तद्व्यं अपकृष्य करोति गुणश्रेणिं ॥५८२॥ स० चं०-अनिवृत्तिकरणका अंत समयके अनंतरि सूक्ष्म कृष्टिनिकौं वेदतौ संतो अपने कालविर्ष सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानकौं प्राप्त हो है । इहां ताका प्रथम समयविर्षे लोभकी सूक्ष्म कृष्टिनिकी जो अंतर्मुहूर्तमात्र स्थिति है ताके संख्यातवें भागमात्र स्थितिकांडकआयाम लांछित हो है। बहुरि मोहका कृष्टिकों प्राप्त भया अनुभाग ताका तौ अनुसमयापवर्तन अर ज्ञानावरणादिकनिका स्थितिकांडकघात अनुभागकांडकघात सो पूर्वोक्तवत् वर्ते है । बहुरि तिस समयविर्षे द्रव्यनिक्षपणका विधान कहिए है सूक्ष्म कृष्टिसम्बन्धी स्थितिविर्षे प्राप्त जो मोहका सर्व द्रव्य ताकौं अपकर्षण भागहारका भाग देइ तहां एक भाग अपकर्षणकरि गुणश्रेणि करै है ॥५८२।।। गुणसेढि अंतरद्विदि विदियट्ठिदि इदि हवंति पव्वतिया । सुहुमगुणादो अहिया अवद्विदुदयादिगुणसेढी ॥५८३॥ गुणश्रेणिरंतरस्थितिः द्वितीयस्थितिरिति भवंति पर्वत्रयाणि । सूक्ष्मगुणतोऽधिका अवस्थितोदयादिगुणश्रेणी ॥५८३॥ १. चरिमसमयबादरसांपराइयस्स मोहणीयस्स द्विदिसंतकम्ममंतोमुहुत्तं । तिण्हं घादिकम्माणं ठिदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । णामा-गोद-वेदणीयाणं ठिदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्साणि । क० चु० पृ० ८६९ । २. से काले पढमसमयसुहमसांपराइयो जादो। ताधे चेव सुहुमसांपराइयकिट्टीणं जाओ ठिदीओ तदो ठिदिखंडयमागाइदं । तदो पदेसमोकड्डियूण उदये थोवं दिण्णं । अंतोमुहुत्तद्धमेत्तमसंखेज्जगुणाए सेढीए देदि । क० चु० पृ० ८६९ । ३. गुणसेढिणिक्खेवो सुहमसांपराइयअद्धा दो विसेसुत्तरो। फ० चु० पृ० ८६९ । एत्थ जइ वि सुहुमसांपराइयकिट्टीणं अंतरापूरणवसेण एकका चेव जादा, तो वि अणयट्टिचरिमसमयावेक्खाए पढम-विदियट्ठिदिभेदं कादूण अंतरचरमट्ठिदी विदियट्टिदी आदिद्विदी च घेत्तव्वा । जयध० ता० प्र०, पृ० २२१० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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