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________________ ४७२ क्षपणासार स० चं०--गुणश्रेणि १ अंतर स्थिति २ द्वितीय स्थिति ३ ए तीन पर्व हैं । अपकर्षण कीया हुआ द्रव्य इन तीनवि विभागकरि दीजिए है । इहां यावत् अपकर्षण कीया द्रव्यकौं असंख्यातगुणा क्रम लीए दीजिए ताका नाम गुणश्रेणि है। बहुरि ताके ऊपरिवर्ती जिनि निषेकनिका पूर्व अभाव कीया था तिनका प्रमाणरूप अन्तरस्थिति है। ताके उपरिवर्ती अवशेष सर्वस्थिति ताका नाम द्वितीय स्थिति है। तहां सूक्ष्म सांपरायका जो काल तातें किछ विशेषकरि अधिक है तो भी इहां संभवता ज्ञानावरणादिकनिका गुणश्रेणि आयामतें अन्तमुहूर्तमात्र घटता ऐसा इहां गुणश्रेणि आयाम है सो यहु उदयादि अवस्थित है । उदयरूप जो वर्तमान समय तातें लगाय यहु पाइए है। पूर्ववत् उदयावली भए पीछे नाहीं है, तातें उदयादि कहिए है। बहुरि अवस्थितिप्रमाण लीए है । पूर्वं गलितावशेष गुणश्रेणि आयामविषै एक एक समय व्यतीत होते गुणश्रेणि आयामविषै घटता होता था अब एक एक समय व्यतीत होते ताके अनन्तरवर्ती अन्तरायामका एक-एक समय मिलि गुणश्रेणि आयामका जेताका तेता रहै है, तातै अवस्थित कहिए ॥५८३।। ओकट्टिदइगिभागं गुणसेढीए असंखबहुभागं । अंतरहिद विदियठिदी संखसलागा हि अवहरिया ॥५८४।। गुणिय चउरादिखंडे अंतरसयलडिदिम्हि णिक्खिवदि । सेसवहुभागमावलिहीणे वितियहिदीए हू' ॥५८५॥ अपकर्षितैकभागं गुणश्रेण्यामसंख्यबहुभागम् । अंतरहिते द्वितीयस्थितिः संख्यशलाका हि अपहरिताः ।।५८४॥ गुणित्वा चतुरादिखंडे अंतरसकलस्थितौ निक्षिपति । शेषबहुभागमावलिहीने द्वितीयस्थितौ हि ॥५८५॥ स. चं०-अपकर्षण कीया जो द्रव्य ताकौं पल्यका असंख्यातवां भागमात्र असंख्यातका भाग दीएं तहां एकभागमात्र द्रव्यकौं गुणश्रेणी आयामविषै दीजिए है। बहुरि अवशेष वहुभागमात्र द्रव्यकौं अन्तर स्थितिका भाग द्वितीय स्थितिकौं दीएं जो संख्यातप्रमाण लीएं एकशलाकाका प्रमाण आवै ताका भाग दीजिए तहां एकभागकौं संदृष्टि अपेक्षा च्यारिकरि गुणिए इतना द्रव्य अन्तर स्थितिविषै दीजिए है। बहुरि अवशेष सर्वद्रव्य सो अन्तविर्षे अतिस्थापनावलीकरि हीन जो द्वितीय स्थिति तीहविर्षे दीजिए है । सोई दिखाइए है अन्तरस्थितिका प्रमाण सर्वतै स्तोक सो संदृष्टिकरि चौगुणा अंतमुहर्तमात्र, बहुरि तातै स्थितिकांडकायामका प्रमाण संख्यातगुणा, सो संदृष्टिकरि सोलहगुणा अन्तमुहूर्तमात्र, बहुरि तातै स्थितिकांडकके नीचैं जो अवशेष स्थिति रहै ताका प्रमाण संख्यातगुणा सो संदृष्टिकरि चौसठि १. गुणसेढिणिक्खेवो सुहुमसांपराइयअद्धादो विसंसुत्तारो । गुणसेढिसीसगादो जा अंतरछिदी तत्थ असंखेज्जगुणं । तत्तो विसेसहीणं ताव जाव पव्वसमये अंतरमासी, तस्स अंतरस्स चरिमादो अंतरट्रिदीदो ति । चरिमादो अंतरट्ठिदीदो पुव्वसमये जा विदियट्ठिदी तिस्से आदिट्ठिदीए दिज्जमाणगं पदेसग्गं संखेज्जगुणहीणं । तत्तो विसेसहीणं । पढमसमयसुहुमसांपराइयस्स जमोकड्डिज्जदि पदेसग्गं तमेदीए सेढीए णिक्खवदि । क० चु० पृ० ८७० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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