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________________ ४७० क्षेपणासारं तृतीय संग्रहविषै संक्रमण भया जो द्रव्य सो तहां विश्रमणावली पर्यन्त तो तहां ही विश्रामकरि तिष्टें, पीछें संक्रमणाबलीविषै सूक्ष्मकृष्टिरूप होइ संक्रमण करै, तब उच्छिष्टावलीमात्र प्रथम स्थिति अवशेष रहि जाय, तातें तीन आवली अवशेष रहें तावत् द्वितीय संग्रहका द्रव्य तृतीय संग्रहविषै संक्रमण होना कह्या । बहुरि ताके ऊपरि द्वितीय संग्रहका द्रव्य अपकर्षण संक्रमणकरि सूक्ष्मकृष्टि हविषे संक्रमण करै है । यावत् दोय आवली अवशेष रहें तावत् ऐसें जानना । बहुरि तहां आगाल प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति करि बहुरि समय घाटि आवलीमात्र निषेकनिक अधोगलनरूप क्रमतें भोगि समय अधिक आवली अवशेष राखे है ||५७८ || ततो हुमं गच्छदि समयाहियआवलीयसेसाए । सव्वं तदियं सुहुमे व उच्छिदुं विहाय विदियं च ॥ ५७९ ॥ ततः सूक्ष्मं गच्छति समयाधिकावलीशेषायाम् । सर्वं तृतीयं सूक्ष्मे नवकमुच्छिष्टं विहाय द्वितीयं च ॥५७९ ॥ स० चं० - बहुरि तहाँ द्वितीय संग्रहकी प्रथम स्थितिविषै समय अधिक आवली अवशेष रहें अनिवृत्तिकरणका अन्त समय हो है । तहां लोभकी तृतीय संग्रहकृष्टिका तौ सर्व द्रव्य सूक्ष्मकृष्टि प्राप्त हो है । बहुरि लोभकी द्वितीय संग्रहका द्रव्यविषै समय अधिक उच्छिष्टावलीमात्र निषेक अर समय घाटि दोय आवलीमात्र नवक समयप्रबद्ध एतो बादर कृष्टिरूप रहें हैं । अन्य सर्व द्रव्य सूक्ष्मकृष्टिरूप द्रव्यार्थिक नय अपेक्षा तो इस सममयविषै परिनमैं है । बहुरि पर्यायार्थिक नय अपेक्षा अगले समयविषै उच्छिष्टावलीमात्र निषेक अर दोय समय घाटि दोय आवलीमात्र नवक समयप्रबद्ध विना अन्य सर्व द्वितीय संग्रहका द्रव्य सूक्ष्मकृष्टिरूप परिन में है ऐसा जानना ॥५७९॥ Jain Education International लोभस्स तिघादीणं ताहे अघादीतियाण ठिदिबंधो । अंत दुसय दिवसस्य य होदि वरिसस्स ॥ ५८० ॥ लोभस्य त्रिघातिनां तत्राघातित्रयाणां स्थितिबंधः । अंतस्तु मुहुर्तस्य च दिवसस्य च भवति वर्षस्य ॥ ५८० ॥ स० चं० - तहाँ अनिवृत्तिकरणका अंत समयविषै संज्वलन लोभका जघन्य स्थितिबंध अंतर्मुहूर्तमात्र है । इहाँ ही मोहबंधकी व्युच्छित्ति भई । बहुरि तीन घातियानिका एक दिन किछू घाटि अर तीन अघातियानिका एक वर्षतैं किंचित् न्यून स्थितिबंध हो है ॥ ५८० ॥ १. एण कमेण लोभस्स विदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमट्टिदी तिस्से पढमट्ठिदीए आवलिया समयाहि सेसा त्ति तम्हि समये चरिमसमयबादरसांपराइओ । तम्हि चेव समये लोभस्स चरिमबादरसां पराइयकिट्टी संभमाणा संछुद्धा । लोभस्स विदियकिट्टीए वि दोआवलियबंधे समयूणे मोत्तूण उदयाबलियपविट्ठ च मोत्तू साओ विदिठ्ठिदीए अंतर किट्टीओ संछुन्भमाणाओ संछुद्धाओ । क० चु० पृ० ८६८-८६९ । २. तम्हि चेव लोभसंजलणस्स ठिदिबंधो अंतोमुहुत्तं । तिन्हं घादिकम्माणं ठिदिबंधो अहोरत्तस्स अंतो । नामा- गोद-वेदणीयाणं बादरसांपराइयस्स जो चरिमो द्विदिबंधो सो संखेज्जेहिं वस्ससहस्सेहिं हाइदूण वरसस्स अंतो जादो । क० चु० पृ० ६६९ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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