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________________ [ ३८ ] सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका टीका समग्र जैन समाजमें ऐसा एक भी व्यक्ति ढूंढे नहीं मिल सकता जो आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी से सुपरिचित न हो । उनके द्वारा की गई साहित्य सेवा ही उनके पाण्डित्य और तलस्पर्शी ज्ञानका साक्ष्य है। आचार्यकल्प यह उपाधि उनकी केवल प्रशंसामात्र नहीं है । यदि उनकी अन्य रचनाओंको ध्यानमें न भी लिया जाय तो भी एकमात्र सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका टीका ही उनके वैदुष्यकी अमर साक्षी है । गोम्मटसार जीवकाण्ड-कर्मकाण्डकी वृत्ति लिखते समय नेमिचन्द्र की जीवप्रबोधिनी वृत्ति और लब्धिसारकी अनाम संस्कृत वृत्ति तथा माधवचन्द्र विद्यदेवका क्षपणासार ग्रन्थ उनके सामने रहा हैं । उक्त वृत्तियों और क्षपणासारको शब्दशः आधार बनाकर ही उन्होंने इस टीकाकी रचना की है। साथ ही इन ग्रन्थोंपर उन्होंने विस्तृत भूमिकाएँ और दोनों वृत्तियों में आई हुई अर्थसंदृष्टियोंपर स्वतन्त्र अर्थसंदृष्टि प्रकरण भी लिखे हैं । लब्धिसार मुख्यतया छह अधिकारोंमें विभक्त है। पांचवेंका नाम चारित्रमोहनीय उपशमना है । इस ग्रन्थकी यहींतक संस्कृत वृत्ति पाई जाती है । इसकी रचना किसने की इसपर न तो वृत्तिकारने ही कोई प्रकाश डाला है और न अपनी टीकामें पण्डितजीने ही। अन्तिम अधिकार चरित्रमोहनीयक्षपणा है। इसकी स्वतन्त्र संस्कृत वृत्ति नहीं है । माधवचन्द्र विद्यदेवका स्वतन्त्र क्षपणासार ग्रन्थ है जो इस समय कहीं कहीं त्रुटितरूपमें दिल्लीके किसी शास्त्रभण्डारमें मौजूद है । उपलब्ध होनेपर उसे व्यवस्थित कर उसपर काम किया जा सकता है। पण्डितजीने अवश्य उसे ही माध्यम बनाकर चरित्रमोहक्षपण अधिकारकी अपनी टीका लिखी है । पण्डितजीने अपनी टीकामें जितना कुछ लिपिबद्ध किया है उसे यदि हम उक्त संस्कृत वृत्तियों और क्षपणासार का मूलानुगामी अनुवाद कहें तो भी कोई अत्युक्ति नहीं होगी। इतना अवश्य है कि जहाँ आवश्यक समझा वहाँ भावार्थ आदि द्वारा उन्होंने उसे विशद अवश्य किया है । पण्डितजीकी सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका टीका विशद और सुबोध है। संस्कृत वृत्तियोंकी तुलनामें मूल ग्रन्थों में प्रवेश करने और विषयको हृदयंगम करने में इससे विशेष सहायता मिलती है । जहाँ भी वृत्तियोंके आधारपर मूल विषयको समझने में कठिनाई आती है वहाँ विद्वान भी इसीका सहारा लेकर मूल विषयको समझनेमें समर्थ होते हैं। आमतौरपर जयधवलामें पहले मूल गाथाका स्पष्टार्थ लिखनेके बाद ही उसमें गर्भित अर्थका विशेष विवरण प्रस्तुत किया है पर लब्धिसार वृत्तिमें इस पद्धतिको नाममात्र भी स्पर्श नहीं किया गया है। इससे प्रायः चरित्रमोह उपशमना और क्षपणा प्रकरणमें गाथाके आधारसे अर्थबोध होना कठिन जाता है । सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका टीका यतः संस्कृत वृत्तिका ही अनुसरण करती है तो भी उन्होंने उसे बीजगणित (अर्थसंदृष्टि) से मुक्त रखकर इसका निर्माण किया है, इसलिए उसके आधारसे विषयको हृदयंगम करनेमें सरलता जानी है। पण्डितजीने एकादि स्थलपर ऐसा अवश्य ही संकेत किया है कि इसका अर्थ स्पष्टरूपसे मेरे लक्ष्यमें नहीं आया सो इसे उनकी सरलता ही समझनी चाहिये । पण्डितजीने गोम्मटसारकी टीका विक्रम सं० १८१८ के माघ शुक्ला ५ को पूर्ण की थी ऐसा गोम्मटसारकी प्रशस्तिसे ज्ञात होता है पर उसी कालके भीतर लब्धिसारकी टीका भी गभित जानना चाहिये। विज्ञेषु किमधिकम् । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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