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________________ [ ३७ ] होनेपर उसका दसवें और ग्यारवें समयप्रमाण अतिस्थापनावलिको छोड़कर बारहवें समयके द्वितीय निषेक से लेकर नये बन्धकी उत्कृष्ट स्थितिमें निक्षेप होगा यहाँ नूतन स्थितिबन्धके नौवें और दसवें समयमें निषेक रचना नहीं है और प्राक्तन स्थितिबन्धके नौवें समयके प्रथम निषेकका उत्कर्षण होनेपर दसवें समयके साथ ग्यारहवाँ समय अतिस्थापनामें गया, इसलिए यहाँ भी उत्कृष्ट निक्षेप एक समय और एक आवलि अधिक उत्कृष्ट आबाधासे न्यून उत्कृष्ट बन्धस्थिति प्रमाण जानना चाहिये, क्योंकि प्राक्तन जिस बन्धस्थिति के प्रथम निषेकका उत्कर्षण करना है वह आबाधाके ऊपर स्थित है तथा जिस निषेकका उत्कर्षण करना है उसमें उत्कर्षित द्रव्यका निक्षेप नहीं होता तथा उस निषेकके आगे एक आवलिप्रमाण अतिस्थापनावलि है, इसलिए उत्कृष्ट स्थितिबन्धमेसे एक समय और एक आवलिकाल अधिक उत्कृष्ट आबाधासमय उत्कृष्ट निक्षेपका निर्देश किया गया है। यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि प्रत्येक समयमें जिस निषेकका अपकर्षण होता है उससे नीचे अतिस्थानकी छोड़को शेष स्थितिमें अपकषित द्रव्यका निक्षेप होता है । और प्रत्येक समयमें जिस निषेकका उत्कर्षण होता है उससे ऊपरसे लेकर यथासम्भव अतिस्थापना होता है जिसमें उत्कर्षित द्रव्यका निक्षेप नहीं होता। इसी तथ्यको ध्यान में रखकर सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका टीकामें आवश्यक प्रकरणका स्वाध्याय करना चाहिये। संस्कृत वृत्तिमें 'डपरि' अग्रे, अन्तिमातिस्थापनावलि युक्त्वा । पाठ होनेसे ही सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका टीकामें भी उन्हीं पाठोंको ध्यानमें रख कर अनुसरण किया गया है। जब कि अपकर्षणमें जिस निषेकके प्रदेश पुंजका अपकर्षण किया जाता है ठीक उसके नीचे अतिस्थापना होती है और उत्कर्षणमें जिस निषेकके प्रदेशपुंजका उत्कर्षण किया जाता है ठीक उसके ऊपर अतिस्थापना होती है । अतः प्रकृतमें यह समझना चाहिये कि अतिस्थापनाके विषयमें उक्त टोकाओंमें जो कुछ निर्देश किया गया है उसका उक्त आशयके साथ स्वाध्याय करना चाहिये। ( ६ ) उपशान्तकषाय गुणस्थानमें परिणामों और उदयके सम्बन्धमें आगमके अनुसार यह व्यवस्था है ( १ ) वहाँ नियमसे अवस्थित परिणाम होता है, क्योंकि वहाँ परिणामोंके हीनाधिक होनेका कोई कारण नहीं पाया जाता। (२) ज्ञानावरणादि ३५ प्रकृतियोंका वह अवस्थित वेदक होता है । ( ३ ) इनके सिवाय अन्य प्रकृतियोंका षड्गुणी हानि, षड्गुणी वृद्धिरूप और अवस्थितवेदक होता है। यह व्यवस्था चूणिसूत्र, जयधवला और लब्धिसार ( गा० ३०६-३०७ ) में एक स्वरसे स्वीकार की गई है। किन्तु लब्धिसार गा० ३०६ की वृत्तिमें एक तो स्वीकार कर लिया है कि उपशान्तकषाय गणस्थान में संक्लेश-विशुद्धिरूप परिणाम होते हैं । दूसरे जिन केवल ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंका उक्त जीव अवस्थित वेदक होता है उनके उदयकी हानि-वृद्धि स्वीकार करके भी गा०३०७ की वृत्तिमें उनका अवस्थित वेदक होता है यह भी स्वीकार कर लिया है जो युक्त नहीं है । अतः यहाँ आगमके अनुसार निर्णय करके स्वाध्याव करना चाहिये। ये कुछ तथ्य हैं जिनका सैद्धान्तिक चर्चा के प्रसंगसे यहाँ निर्देश किया है । विचारके लिए और भी विषय हो सकते हैं । पर तत्काल उनपर प्रकाश डालना सम्भव नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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