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________________ [ ३६ ] सर्वार्थसिद्धिका सम्पादन करते समय सासादन गुणस्थानमें कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन कैसे बनता है इसका स्पष्टीकरण टिप्पणमें श्री धवला स्पर्शन प्ररूपणाके आधारसे किया ही है। दूसरे विशेषकी अपेक्षा विचार करते समय एकेन्द्रियोंमें सर्वलोकप्रमाण ही स्पर्शन बतलाया गया है सो इससे भी उक्त तथ्यकी पुष्टि होती है। यदि पूज्यपादको अन्य आचार्योंके मतकी अपेक्षा एकेन्द्रियों में सासादन गणस्थान स्वीकार कर स्पर्शन बतलाना इष्ट होता तो वे विशेषकी अपेक्षा एकेन्द्रियों में स्पर्शनकी प्ररूपणा करते समय येषां मते' इत्यादि कह कर सासादनमें एकेन्द्रियोंका स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजु अवश्य स्वीकार करते । किन्तु उन्होंने ऐसा कुछ भी संकेत नहीं किया, इसलिए 'अथवा येषां मते' इत्यादि वचन सर्वार्थसिद्धिमें पूख्यपादका स्वीकार न कर प्रक्षिप्त ही जानना चाहिये । भावरूपणासे भी इसकी पुष्टि होती है । आशा है इससे जिस लेखकको कहीं भी किसी प्रकारका भ्रम हुआ है उसका परिहार हो जाता है। (४) लब्धिसार गाथा ६१ से लेकर ६७ तक की गाथाओंमें उत्कर्षणसम्बन्धी निक्षेप अतिस्थापना आदिकी प्ररूपणा करते हुए गाथा ६५ की संस्कृत वृत्तिमें उक्त गाथामें निरूपित विषयको 'अथवा आचार्यान्तरख्याख्यानमतमेतत्' यह लिखकर भिन्न आचार्यके मतसे उक्त गाथाकी प्ररूपणाका निर्देश किया गया है । किन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है । वस्तुतः नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने गाथा ६२,६३ और ६४ द्वारा एक प्रकार से उत्कर्षण विषयक उत्कृष्ट निक्षेपका निरूपण कर गाथा ६५ द्वारा दूसरे प्रकारसे उत्कृष्ट निक्षेपको धटित करके बतलाया है । प्रथम प्रकार यह है (१) कोई एक जीव है उसने मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ७० कोडाकोड़ी सागरोपम किया। पुनः बन्धावलि काल जाने पर उसने अगले समयमें उक्त बन्धकी अग्रस्थितिके निषेकसम्बन्धी कुछ परमाणु पुंजका अपकर्षण कर उदय समयसे लेकर निक्षेप किया। पुनः अगले समयमें उस प्रदेशपुंजको उस समय बँधनेवाली अपनी उत्कृष्ट स्थितिमें उत्कर्षित कर सात हजार वर्षप्रमाण उत्कृष्ट आबाधाको छोड़ कर बन्धस्थितिमें निक्षिप्त किया। ऐसा करनेपर उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण सात हजार वर्ष और एक समय अधिक एक आवलिकम उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि यहाँ बन्धावलिके बाद प्रथम समयमें अपकर्षण किया और दूसरे समयमें अपकर्षित द्रव्यका उत्कर्षण किया, इसलिए नये बन्धकी उत्कृष्ट स्थितिमेसे एक समय अधिक एक आवलि तो यह कम हो गया तथा नये बन्धकी आबाधामें उकर्षित द्रव्यका निक्षेप नहीं होता, इसलिए उत्कृष्ट स्थितिमेसे उत्कृष्ट आबाधाकाल और कम हो गया। यह उत्कृष्ट निक्षेपका एक प्रकार अपकर्षणपूर्वक उत्कर्षणको लक्ष्यमें रखकर सूचित किया गया है । आगे अकर्षण किये बिना उत्कृष्ट निक्षेप किस प्रकार घटित होता है इसका निर्देश करते हैंउत्कृष्ट स्थितिबन्ध होने के एक आवलिबाद आबाधाकालके ऊपर स्थित प्रथम निषेकका तत्काल बन्धको प्राप्त समयप्रबद्ध में द्वितीय निषेकसे लेकर उत्कर्षण करनेपर इस प्रकार भी उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त होता है। यहाँ प्रथम बार उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे लेकर एक आवतिकाल बाद अगले समयमें होनेवाले उत्कृष्ट स्थिति बन्धके आबाघाकालके बाद जो निषेक रचना है उसमें प्रथम बार हई बन्ध स्थितिके प्रथम निषेकका उत्कर्षण होकर निक्षेप विवक्षित है। उदाहरणार्थ प्रथम बार हुए उत्कृष्ट स्थिति बन्धका उत्कृष्ट आबाधाकाल आठ समय है और बन्धावलिकालके दो समय बाद तीसरे समयमें जो पुनः उत्कृष्ट स्थितिबन्ध हुआ उसका भी उत्कृष्ट आबाधकाल आठ समय है । जो दसवें समयपर समाप्त होता है । यतः यहाँ प्रथम समयमें हुए प्राक्तन स्थितिबन्धके नौवें समयमें स्थित निषेकका नये स्थितिबन्धमें उत्कर्षण करना है और यह उत्कर्षण करनेवाला जीव तीसरे समयमें स्थित होकर उत्कर्षण कर रहा है, अतः इस नौवें समयके निषेकका उत्कर्षण १. पृ० १ । पृ० ४६। ३ पृ० ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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