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मनुष्यनियों में स्त्रीवेदके उदयको सम्मिलित कर देना चाहिये तथा तीर्थंकर आहारकद्विक, पुरुषवेद और नपुंसकवेदके उदयको कम कर देना चाहिये ॥३०१ ॥
इस प्रकार सिद्धान्त ग्रन्थोंमें मनुष्यनी पदसे मनुष्य द्रव्यस्त्रियाँ नहीं ली गई हैं यह स्पष्ट होते हुए भी दोनों वृत्तिकारोंने गो० जीवकाण्ड गाथा १५९ में आये हुए पज्जत्तमणुस्साणं तिचउत्थो माणुसीण परिमाणं । गाथा के इस पूर्वार्ध पदकी व्याख्या करते हुए 'मानुसीण' पदका अर्थ द्रव्यवेदवाली मनुष्यस्त्रियाँ किया है ।
यथा
पर्याप्त मनुष्यरुगल राशि त्रिचतुर्भाग मातुषिरय्य द्रव्यस्त्रीयर परिमाणमक्कु ४२ = ४२ = ४२ ३
1
४
पर्याप्त मनुष्यराशेः त्रिचतुर्भागो मानुषीणां द्रव्यस्त्रीणां परिमाणं भवति ४२ = ४२ = ४२ = ३ ।
४
क० वृ०
जो युक्तियुक्त नहीं है । अतः यहाँ ऐसा समझना चाहिये कि वस्तुतः यह संख्या द्रव्यस्त्रियोंकी न होकर भाववेदी अपेक्षा मनुष्यगतिके स्त्रीवेदी जीवोंकी है । द्रव्यवेदकी मनुष्य स्त्री अपेक्षा तीनों वेदवाली होती हैं । (देखो जीवस्थान सत्प्ररूपणा ९३ टोका ) ।
आगे गो० जीवकाण्ड गाथा १६३ में भी 'माणुसी' पदका अर्थ भाववेदवाली मनुष्यिनी ही लेना चाहिये, द्रव्यवेदवाली मनुष्यस्त्रियाँ नहीं । आगे आलाप अधिकारमें भी मनुष्यिनियोंके एक स्त्रीवेद आलाप ही लिया गया है सो इससे भी उक्त तथ्यकी पुष्टि होती है । गो० जी० पृ० ९७७ आदि ।
( २ ) इसी प्रकार गाथा १५० में तिर्यंचगतिके जीवोंके ५ भेद और मनुष्य गतिके जीवोंके ४ भेद किये गये हैं । तिर्यञ्चों में वहाँ एक भेद तिर्यञ्चयोनिनी भी है । किन्तु उसका वृत्तिकारोंने क्रमसे 'योनिमतियर्यचरेंदु' 'योनिमत्तिर्यञ्चः' यह अनुवाद किया है। हिन्दी टीकामें भी उसी बातको दुहराकर योनिमत् तिर्यंच अर्थ किया गया है। सिद्धान्त ग्रन्थोंके अनुवादके समय हम लोगोंसे भी ऐसी ही भूल हुई है । जैसा कि हम पहले लिख आये हैं कि आगममें सामान्य तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्ययञ्च पर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, अपर्याप्त ये पांच भेद तथा मनुष्योंके सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और मनुष्य अपर्याप्त ये चार भेद दृष्टिगोचर होते हैं । उन्हें ही संक्षेप में इस गाथा द्वारा संकलित किया गया है। अतः अनुवाद करते समय न तो योनिमत्तिर्यञ्च ही लिखना चाहिये और न योनिमत् मनुष्य ही । सिद्धान्तको अपेक्षा ही ये दोनों प्रयोग गलत हैं । द्वितीय आवृत्ति के समय धवला में मैंने इस भूलका परिमार्जन करना प्रारम्भ कर दिया है ।
( ३ ) सर्वार्थसिद्धि में 'सत्संख्या' इत्यादि सूत्रकी व्याख्या षट्खण्डागम जीवस्थानके अनुसार ही की गई है । उसमें कहीं भी मतभेदको अपेक्षा ऊहापोह नहीं किया गया है । इसलिए सासादन गुणस्थान में जो कुछ कम बारह बटे चौदह भाग प्रमाण स्पर्शन कहा गया है वह स्पर्शन अनुयोगद्वारके अनुसार मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा ही जानना चाहिये । अतः किसी किसी हस्तलिखित प्रतिमें जो यह वचन मिलता है
अथवा येषां मते सासादन एकेन्द्रियेषु नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया द्वादश भागा न दत्ताः ।
सो यह वचन मूल सर्वार्थसिद्धिका नहीं है, क्योंकि सर्वार्थसिद्धिके सत्प्ररूपणा में जब एकेन्द्रियोंसे लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्यन्त जीवोंके केवल एकान्तसे एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही स्वीकार किया गया है' ऐसी अवस्था में आचार्य पूज्यपादने स्पर्शन प्ररूपणा में मतभेदकी चर्चा नहीं की होगी यह स्पष्ट ही है । हमने १. पृ० ३१ ।
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